‘शैव मत का इतिहास पक्ष’,सिंधु घाटी सभ्यता और ऋग्वेद के काल प्रारंभिक चरण में हम प्रकृति पूजक समाज थे। अग्नि,पृथ्वी,वायु,जल से हम सर्वाधिक प्रभावित थे। इसलिए इनकी ही हम इंद्र अग्नि अरुण,वरुण के रूप में अराधना कर रहे थे। सिंधु घाटी सभ्यता में ही हम शिव के कल्याण स्वरूप पशुपति के रूप में तथा शिव के विध्वंसक स्वरूप,महाकाल रुद्र के रूप में पूजते हुए पाए गए हैं।
यजुर्वेद आते-आते रूद्र से कल्याण कर्ता स्वरुप शिव शंकर के रूप में पूजे गए । कष्टों और उनके निवारण के रूप में हम शिव को ही पूजते हैं। यहीं यजुर्वेद से हम इन्हें शिव शंकर कहने लगे…। अथर्ववेद आते-आते शिव सभी व्याधियों को हरने वाले सभी कष्टों के निवारण कर्ता “महाभेषज “अर्थात डॉक्टरों के डॉक्टर महादेव कहलाने लगे। इस प्रकार शिव समाज के हर वर्ग में बराबर पूजे जाने लगे..!
शिव की इस विराट स्वीकृति ने भारत के अलग-अलग हिस्सों में शिव को 28 अवतारों के रूप में पूजना प्रारंभ किया जबकि भगवान विष्णु 10 अवतार के कारण दशावतार कहलाए। हर विधि, हर विधान के ज्ञाता…बहुत थोड़ी और सूक्ष्म भाव प्रधान भक्ति से प्रसन्न होने वाले आशुतोष, नृत्य के भी ज्ञाता हैं। शिव 108 प्रकार के नृत्य जानते है,नृत्य की सभी मुद्राएं विशेष प्रयोजनो के लिए हैं।जबकि व्यवस्था पालक और संहारक के रूप में तांडव नृत्य विशेष प्रसिद्ध रहा है।
शिव की हम आठ स्वरूप में पूजा करते हैं जिसमें 4 कल्याणकारी रूप है 4 विध्वंस कारी…। शिव पर्वत वासी होने के कारण उत्तर भारत के तो सबसे प्रसिद्ध देवता हैं ही दक्षिण में भी कृष्णा नदी के दक्षिण को शिव का क्षेत्र अर्थात विरुपाक्ष क्षेत्र कहा जाता है। दक्षिण में शिव तीन रूपों में अधिक लोकप्रिय हैं। विरुपाक्ष, पर्वत स्वामी और चित्रेश्वर..।
इस प्रकार शिव संपूर्ण भारत में आराध्य देव रहे हैं,जब वैष्णव धर्म का प्रारंभ हुआ तो भगवान विष्णु ने स्वयं शिव की आराधना करते हुए इन्हें विश्व की आत्मा का दर्जा दिया, गुप्त काल में भगवान शिव और विष्णु एकाकार(संयुक्त) स्वरूप में पूजे गए,हरिहर कहलाए,कालांतर में वैष्णव धर्म ने अपनी अलग राह अपना ली। वम और फट शिव की तांत्रिक आराधना के नाम हैं।
शिव के आठरूप: शिव आठ रूप में पूजे जाते हैं जिसमें चार संहारक मुद्रा और चार कल्याणकारी…। संहारक रुप में शिव-रुद्र,उग्र,अशनि और सर्व के रूप में तो कल्याणकारी रूप में पशुपति,भव,महादेव और ईशान कहलाए…।
दक्षिण भारत में पल्लव राजाओं ने शिव के त्रिमूर्ति रूप को जिसमें शिव ,उमा और स्कंद रुप में की आराधना की,पल्लव राजा ने शिव के सुख दुख में समान व्यवहार के रूप ‘आनंद- तांडव” को प्रचारित किया। जबकि चोल राजाओं ने भगवान शिव के सार्वभौमिक शिक्षक के रूप में आराधना की जहां शिव चार हाथों वाले शिक्षक,नृतक के रूप में भी दिखते हैं। जैसे-जैसे भारतीय समाज का विभिन्न वर्ग और संप्रदायों में विभाजन हुआ…। शिव भी अपना स्वरूप बदलते गए,शिव का भक्ति मार्ग,पाशुपत,कापालिक,काल मुख और लिंगायत के रूप में विभक्त हुआ।
दक्षिण भारत में लिंगायत और वीर शैव समाज के सबसे बड़े वर्ग के रूप में आज भी स्थापित हैं। जो दक्षिण की राजनीति को प्रभावित करते हैं…।शिव और शैव धर्म को अलग-अलग प्रकार से चुनौतियां मिली लेकिन सभी चुनौतियों का सामना करते हुए शिव आज भी भारत में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त,कष्टों के निवारण कर्ता, देवताओं के देव के रूप में जाने और माने जाते हैं।
शैव धर्म के प्रचार प्रसार के लिए हम आदि गुरु शंकराचार्य और 63 नायनार संतों का योगदान सर्वाधिक है। शिव के सर्व व्यापक सर्व स्वीकार्य देव होने का मुख्य कारण शिव की भक्ति के लिए कोई बड़े नियमों का नहीं होना और भक्तों को उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के इतर उसके भक्ति भाव की शक्ति से ही स्वीकार लेना है। सब को स्वीकार करने की परंपरा शिव को सार्वभौम बना देती है।
आज शिवरात्रि का महापर्व है,भगवान शिव हमारे भीतर सभी वर्ग और धर्मों के प्रति समानता का भाव दें,हम हर प्रकार के विभेद से मुक्त हों,हर स्थिति में समरूप रह सके यही शुभकामनाएं ।
आइए आज अकाल मृत्यु हरने वाले महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करें।
“ॐ हौं जूं सःॐ भूर्भुवःस्वःॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृ त्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वःभुवःभूःॐ सःजूं हौं ॐ।”
जय भोले शंकर..।
आलेखः- प्रमोद शाह