“कभी-कभी लगता है अपुन ही भगवान है!” योगी आदित्यनाथ को भी अगर यही लगता हो, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। दरअसल वैदिक ज्ञान की परंपरा में ‘अहम् ब्रह्मास्मि!’ की अनुगूंज है ही इतनी गहरी कि खुद को ईश्वर सा समझने की बात आम जनमानस में भी अक्सर गूंजती सुनायी पड़ जाती है। लेकिन योगी आदित्यनाथ आम कतई नहीं हैं, वे कई अर्थों में बहुत ख़ास हैं। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि मुंबईया भाषा में विधायक को आमदार और सांसद को ख़ासदार कहते हैं। योगी को यह ख़ासदारी आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम उम्र में मिल गई थी, जिसकी कहानी आप आगे पढ़ेंगे। लेकिन सवाल उठता है उस कहानी को पढ़ा ही क्यों जाना चाहिए? यह कहानी आप इसलिए पढ़िए क्योंकि इसमें “शनि” का बहुत बड़ा रोल है।
5 जून 1972 को योगी आदित्यनाथ का जन्म पानचुर गांव, पौड़ी-गढ़वाल में हुआ। उनका वास्तविक नाम अजय मोहन बिष्ट है। गणित में ग्रेजुएट योगी के जीवन का गणित बहुत विचित्र रहा है। पढ़ाई पूरी करने के बाद सन् 1990 में वे राम जन्मभूमि आंदोलन में कूद गए, मात्र 18-19 साल की उम्र में। इसी दौरान वे गोरखनाथ मठ के प्रमुख महंत अवैद्यनाथ के संपर्क में आए और 1993 में उन्होंने घर परिवार छोड़कर महंत अवैद्यनाथ से दीक्षा लेकर सांसारिक जीवन से संन्यास ले लिया। संन्यास के बाद उनका नाम अजय मोहन बिष्ट से बदलकर योगी आदित्यनाथ हो गया।
1998 में मात्र 26 साल की उम्र में योगी आदित्यनाथ ने पहली बार बीजेपी के टिकट पर गोरखपुर से सांसद के तौर पर जीत दर्ज की थी लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी की वह सरकार 13 महीने ही चल सकी। हालांकि योगी के लिए वह समय बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ। जून 1998 में ही जीवन का 27वां साल शुरू होने पर उन्होंने पूर्वी उत्तरप्रदेश में ‘हिंदू युवा वाहिनी’ नाम से युवाओं का एक संगठन शुरू किया। बाद में यही संगठन का बढ़ता प्रभाव बीजेपी से तनातनी के बावजूद उनके राजनीतिक जीवन की संजीवनी बना रहा।
27वें साल में ही यानी 1999 में दोबारा लोकसभा चुनाव हुए, तब से लेकर 2014 तक योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार गोरखपुर सीट पर अपराजेय बने रहे हैं। हालांकि इस बीच बीजेपी से उनके रिश्ते हमेशा तल्ख ही रहे। यह तनातनी संभवत: इस कारण रही हो कि पहले सैटर्न रिटर्न के दौरान योगी आदित्यनाथ को अपने जीवन के जिन वास्तविक उद्देश्यों का पता चला और जिनकी ओर वे बढ़ रहे थे, बीजेपी की तत्कालीन नीतियों के साथ उन्हें वे उद्देश्य कतई पूरे होते नहीं दिख रहे थे।
शायद यही कारण रहा होगा कि 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी जब बहुमत लेकर उत्तरप्रदेश की सत्ता की ओर बढ़ी तो मुख्यमंत्री पद के लिए गृहमंत्री राजनाथ सिंह जैसे नामों की अटकलों को धता बताकर योगी आदित्यनाथ ने उत्तरप्रदेश के मुखिया पद की बागडोर संभाल ली। अब सवाल उठता है कि क्या एक संन्यासी मुख्यमंत्री जैसे पद पर बैठ सकता है?
संविधान में इसका प्रावधान भले ही हो लेकिन पौराणिक इतिहास में बहुत ढ़ूंढ़ने पर भी किसी संन्यासी के राजा बनने की कहानी प्रमुखता से नहीं मिलती। अव्वल तो इसका कारण यही है कि संन्यास का वास्तविक उद्देश्य मोक्ष तक पहुंचना है न कि सत्ता तक। पौराणिक ही नहीं ऐतिहासिक दृष्टि से भी चाणक्य और चंद्रगुप्त जैसे उदाहरणों से इसका दूसरा और प्रमुख कारण भी समझा जा सकता है, वह यही है कि सत्ता के सर्वोच्च पद पर पहुंचने पर मुखिया अपने राज्य और प्रजा को मिलने वाले सुख-दुख का सीधे तौर पर उत्तरदायी हो जाता है। फिर जनता के हित में लिए जाने वाले निर्णय हमेशा सबके लिए सुखदायी ही हों यह संभव नहीं। ऐसे में कर्मफल की अवधारणा से एक संन्यासी का मोक्ष निश्चित तौर पर बाधित हो जाता है। शायद इसी वजह से चाणक्य जैसे विद्वान भी सत्ता के साथ मार्गदर्शक के रूप में अपरोक्ष रूप से जुड़े रहे, न कि एक शासक के तौर पर।
अध्यात्मिक तौर पर निश्चित रूप से योगी आदित्यनाथ एक कठिन यात्रा पर हैं जिसमें उन्हें पहले सैटर्न रिटर्न के दौरान अनुभव हुए जीवन के अपने वास्तविक उद्देश्य की ओर भी बढ़ना है तो वहीं दूसरी तरफ उन्हें संन्यासी होने के नाते मोक्ष भी पाना है?
यह कठिन राह कैसे पूरी होगी वो शनि ही जानें! लेकिन हां अपने जीवन के 49 साल पूरे कर चुके योगी आदित्यनाथ जल्द ही अपने दूसरे सैटर्न रिटर्न में प्रवेश के साथ एक बार फिर शनि की रडार में आने वाले हैं। अपने उद्देश्यों के प्रति ईमानदार रहने के साथ-साथ अगर वे राजधर्म भी ईमानदारी से निभा पाए तो शनि उनपर दोबारा मेहरबान हो सकते हैं।