जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’ के कथा-संकलन ‘‘देवता का डांण्डा’’ की कहानियां पढ़ते हुए मुझे नोबेल सम्मान देने वाली स्वीडिश अकादमी का वह वक्तव्य याद आ रहा था जो साल 2020 का साहित्य का नोबेल देते समय इस सम्मान की प्राप्तकर्ता कवियित्री लुईस ग्लिक की कविताओं के बाबत जारी किया गया। स्वीडिश अकादमी ने लुईस की कविताओं की समीक्षा करते हुए कहा- ‘‘सादगी भरी सुन्दरता व्यक्तिगत अस्तित्व को भी सार्वलौकिक बनाती है।’
साहित्य के नजरिए से यह बहुत महत्वपूर्ण बयान है। जीवन के विराट अनुभव की बातें जब अपने स्वाभाविक प्रवाह में प्रमाणिक तथ्यों के साथ सादगीपूर्ण ढंग से बयान की जाती हैं तो वह पाठक की चेतना में उतर जाती है। शिल्प और कथ्य के नाम पर मनमाने प्रयोग अक्सर साहित्य को जटिल बना देते है और तब ऐसा साहित्य संग्रहालयों और पुस्तकालयों की अकादमिक शोभा भर बन जाता है। वह पाठक की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुरूप नहीं हो पाता।
अस्सी के दशक के बाद से हिन्दी कहानी अनेक प्रकार के खांचों में ढलती रही है। कई फॉर्मेट आजमाए गए, कई विमर्श परखे गए, सैकड़ों लेखकों ने नए-नए दावों के साथ कहानियां लिखी। यह सही है कि नव-प्रयोगवाद का यह आंदोलन कुछ यादगार कहानियों का जन्मदाता बना, लेकिन उतना ही सच यह भी है कि स आंदोलन ने मठाधीशी की एक नई परम्परा को जन्म दिया। फलस्वरूप प्रायोजित कथाकार मुख्य पटल पर छा गए और सादगीपूर्वक अपने लोक के आख्यान सुनाने वाले ग्राम्य-भारत के रचनाकार नैपथ्य में चले गए। इस दृष्टि से देखा जाय तो यह दौर साहित्यिक कुटिलताओं का युग रहा। इसने महानगरों में एक खास तरह का लेखक-वर्ग पैदा किया और सुदूर इलाकों से प्रस्फुटित साहित्य की स्वाभाविक धारा के प्रवाह को निर्दयता से बाधित किया। दिल्ली मण्डी इस बात से डरी रही कि भारत के सीमांत इलाकों से आने वाले साहित्यिक-स्वर अस्सी के दशक से शुरू हुए इस प्रायोजित कार्यक्रम ने मठाधीशों के धंधे को खूब चमकाया। लेकिन इससे साहित्य आम पाठक से दू होता चला गया। अनेक पत्रिकाएं दम तोड़ गई। और अखबारों ने अपने साहित्यिक परिशिष्ठ छापने बंद कर दिए। पाठकीय दृष्टि से यह एक बड़ा और लगभग अपूरणीय नुकसान है।
‘देवता का डाण्डा’ संग्रह की यह बीस कहानियां सादगी भरी सुन्दरता के व्यक्तिगत आस्तित्व को सार्वलौकिक बनाती है। इनमें शिल्प की बारीकी और कथ्य की चालाकी तलाशने वाले आलोचक भले निराश होंगे लेकिन साहित्य में जीवन के स्वाभाविक रसों के मुरीद पाठक इन कहानियों में हिमालयी लोक अठारहवीं सदी के ब्रिटिश उपन्यासकार थॉमस हार्डी के ‘वैसेक्स’ की तरह रोमांच, विषाद, विसंगति, उल्लास और नियति की बिडम्बनाओं से भरा है। जैसे हार्डी के उपन्यासों में वैसेक्स में आने वाले बाहरी दुनियां के सम्य लोग पगलाई भीड़ के उदण्ड सदस्य समझे जाते हैं वैसे ही जेपी की हिमालयी परिधि में दाखिल होने वाले शहरी जीव लुटेरे नजर आते है। हिमालय की जड़ पर बसे गढ़वाल के रूद्रप्रयाग जनपद में अलकनंदा और मन्दाकिनी घाटियों में बसे पर्वतवासियों के जीवन के सभी पक्ष इन कहानियों में प्रामाणिक रूप से दर्ज होते चले जाते है। हमारी दुनियां और खासकर हिमालय जितनी तेजी से बदल रहे है, उस लिहाज़ से इस दौर में इन कहानियों लिखा जाना प्रकारान्तर से इतिहास को समय के सीने पर दर्ज़ करने की कवायद कही जा सकती है। आने वाली पीढियां शायद ही विश्वास करें कि कुछ दहाई के वर्षों में उनकी दुनियां अपना आदिम अस्तित्व खो चुकी है और पर्वत-सा संकल्प रखने वाले उनके पुरखे अपनी मिट्टी में दफ़न हो चुके है।
जेपी ने पर्वत-प्रान्तर को केवल देखा-भोगा ही नहीं, महसूसा भी है। अन्तस में दबे जीवन के तल्ख स्वाद जब कागज़ पर उतरते हैं तो अनुभवों का रंगीन कैनवास आकार लेता है। इस कैनवास में जीवन के वह सभी रंग समाहित हैं जो एक मनुष्य को खतरों, संकटों, अभावों, आशंकाओं और विडम्बनाओं से जूझने के लिए तैयार करते है। ये मनुष्य के जूझने औेर जीतने की कहानियां हैं। ये मनुष्य के पस्त होकर गिरने और गिरकर भी लड़ने के उद्दाम साहस की कहानियां है। इन कहानियों में दर्ज चरित्र और स्थान, घटनाएं और विवरण सच के इर्द-गिर्द बुने गए है। कई लोग जो इन कहानियों में जगह पा गए, आज भी सांसे भर रहे है। कई स्थान छूकर देखे जा सकते है। अगर आप कभी बद्री-केदार के उस इलाके में गए है जहां का रिवेश इन कहानियों में दर्ज है तो यकीनन आपकी पुतलियों में इनका वाचन तस्वीरों की एक जीवंत श्रृंखला का निर्माण करेगा और आप आश्चर्य करेंगे कि अनुभव के खज़ाने अगर सुरक्षित रखे जाएं और स्मृतियां मकड़जालों से बची रहें तो जीवन की विराटता के स्वाभाविक आख्यान भी अदद कहानियों का रूप ले सकते है। रांघेय राघव और राही मासूम रज़ा जैसे कथाकारों ने अतीत में ऐसे उदाहरण स्थापित भी किए है।
जय प्रकाश ‘जेपी’ का यह संग्रह इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए ताकि सनद रहे कि इस हिमालय को रहने लायक बनाने वाले पर्वतवासी भले नोटिस में लाए जाने से चूक गए हों लेकिन वे अपने समय के निशंक योद्धा थे। यह कहानियां यह संकेत भी देती हैं कि हिमालय अभी भी रहस्यों से भरा है और लेखकों से लेकर घुमक्कड़ों तक को अभी इसको तलाशना बाक़ी है।
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हिंदी कहानी संग्रह – देवता का डांडा
लेखक – जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
प्रकाशक – चैनल माउंटेन इंक
पृष्ठ संख्या – 164
मूल्य – 299 रुपये मात्र