लेखक मितेश्वर आनंद की नई पुस्तक ‘स्टेजिंग एरिया’ कोरोना महामारी के मर्मस्पर्शी अनुभवों,मानवीयता,आपसी तालमेल और सहयोग के दृश्यों का फलक

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डॉ.करुणा शर्मा

‘कोरोना’ नाम की भीषण महामारी जिसने संपूर्ण विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था,जो आज भी यदा-कदा अपने स्वरूप से डराती रहती है और कहीं न कहीं अब भी विद्यमान है, जिसकी पहली और दूसरी लहर के अनुभव आज भी मनुष्य के रोंगटे खड़े कर देते हैं,कोरोनाग्रस्त हुए मानव आज भी उस बीमारी के बाद वाले लक्षणों को सहने के लिए अभिशप्त हैं,जिसने उपभोक्तावादी मानव को काल की वास्तविकता से परिचित कराकर ईश्वर की शरण में जाने के लिए विवश कर दिया था,चुनौती बनी ऐसी महामारी से टक्कर लेने के लिए बनाई गई कोरोना वारियर्स की टीम का हिस्सा बने मितेश्वर आनंद ऐसे समय में अनेक अद्भुत,डरावने और अनूठे अनुभवों से गुजरे।

लेखक-मितेश्वर आनंद

मूलरूप में सुंदोली,हल्दुखाल,पौड़ी गढ़वाल के रहने वाले मितेश्वर ने उस समय के अनुभवों को अपनी एक खास तरह की किस्सागोई शैली में ’स्टेजिंग एरिया’ में अपने पाठकों के साथ साझा किया है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ ही स्टेजिंग एरिया को चित्रित करता-सा प्रतीत होता है तथा उसके प्रथम पृष्ठ पर अंकित शीर्षक ’स्टेजिंग एरिया’ के नीचे कोष्ठक में लिखे ’हारा कोरोना,जीता भारत’ को पढ़ते ही समझ में आ जाता है कि संकलन कोरोना काल में हुए विविध अनुभवों को वर्णित करने वाला तो होगा ही,साथ ही सकारात्मकता से उस बीमारी का सामना करने के लिए भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का भी विवरण देने वाला होगा। हाथ में पुस्तक के आते ही मन उसे पढ़ने के लिए विचलित हो उठा और तब तक शांत नहीं हुआ जब तक उसे पूरा पढ़ न लिया।

यद्यपि यह किस्सागोई कोरोनाकाल में कार्यरत टीम का सदस्य होने के दौरान हुए अनुभवों पर आधारित है तथापि जिस सरल,प्रेरक एवं रोचक शैली में इसे गूंथा गया है,वह प्रशंसनीय है। बेहद संवेदनशील मितेश्वर जी का प्राक्कथन ’समस्या नहीं समाधान का हिस्सा’ इस बात का प्रतीक बन जाता है कि वे स्वयं भी अत्यंत सकारात्मक दृष्टिकोण के व्यक्ति हैं, कोरोना रोगियों के व्यवहार का दत्तचित्त होकर गहन निरीक्षण-परीक्षण करते हैं तभी वे उनके साथ धैर्यपूर्वक संपर्क स्थापित करने के साथ-साथ उनके साथ हुए अपने अनुभवों को हृदय में संजोते हुए आगे बढ़ते रहते हैं और तब तक चैन की साँस नहीं ले पाते जब तक कोरोना की समस्या सामान्य स्तर पर नहीं आ जाती।

चूंकि कोराना संकट से समाज को अभी भी मुक्ति नहीं मिली है और आज का पाठक स्वयं भी इसप्रकार के अनुभवों से गुजर चुका है,अतःलेखक ने ’स्टेजिंग एरिया’ में सत्य पर आधारित अनुभवों को इस तरह अभिव्यक्त किया है कि भविष्य के वे पाठक जिन्होंने इस बीमारी का सामना नहीं किया होगा,जब वे इस पुस्तक को पढेंगे तो उनके सामने कोरोना बीमारी का भीषण स्वरूप तो चित्रित होगा ही,कोरोना काल में उद्भूत नए-नए शब्द परिभाषाओं के साथ अपने अर्थ को उनके सामने व्यक्त करेंगे ही, साथ ही वे यह भी जान सकेंगे कि प्रवासी मजदूरों की उन दिनों में कैसी मानसिक स्थिति हुई,’इन मजदूरों के एक उम्रदराज साथी ने बड़ी दारुणता के साथ हमसे कहा,साहेब! आप हम लोगों को हमारे घर पहुँचवा दीजिए। कम से कम मरेंगे भी तो अपने घर जाकर मरेंगे।’ (वो बीस लोग), कोरोना रोगियों के पारिवारिक जनों की मानसिकता पल-पल कैसे बदल रही थी (मैं खुद पर आग घाल लूंगी, मुक्तिबोधः दादा, पिता, पुत्र, चार भाईयों की एक ही बहन आदि), और ऐसी मानसिकता वाले लोगों के बीच घिरे लेखक का यह सकारात्मक दृष्टिकोण,’स्टेजिंग एरिया सिर्फ कोविड प्रबंधन का मैदान ही नहीं था बल्कि यह मानवीय संवेदनाओं,व्यवहार और मनोविज्ञान का उर्वर मैदान भी बन चुका था।

जिस तरह प्रवासियों को लेकर आने वाली बसें स्टेजिंग एरिया के मैदान की धूल उड़ाती थीं उसी तरह यहाँ घटित होने वाली घटनाओं ने हमारे भीतर के मैदान पर पड़ी धूल उड़ाने में मदद की थी। एक प्रकार से स्टेजिंग एरिया हमारा शिक्षक बन चुका था जिसने हमें इंसानी व्यवहार के पीछे की विवशताओं के मनोविज्ञान को गहरे से समझने और एक बेहतर इंसान बनने में सहायता की थी।’  भी पढ़ सकेंगे। उस समय विवशतावश किए जाने वाले विवाह किसप्रकार से संपन्न किए जा रहे थे,नव विवाहित दुल्हा दुल्हन के साथ मानवीय स्तर पर किए जाने वाले व्यवहार (मैरिज फाइन, दुल्हा दुल्हन क्वारंटीन; रामपुर से रामनगर पिया के घर; पीपीई किट में निकाह) के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

यद्यपि कोरोनाकाल की भयावहता से आज के लोग परिचित हैं,तथापि उसकी भीषणता का जिस गहनता और गहराई से लेखक द्वारा वर्णन किया गया है, उसे पढ़ते ही वह चित्र वर्तमान के पाठक के समक्ष सजीवता से नर्तन करने लगता है, ’कोरोना वायरस की डरावनी खबरों ने लोगों के दिमाग में हमेशा के लिए कोराना वायरस का चित्र बैठा दिया था। एक लाल रंग की गोल आकृति जिस पर हर तरफ काँटे उगे हुए थे। कोरोना वायरस की यह तस्वीर खौफ का पर्याय बन चुकी थी।’  मानव-मनोविज्ञान को इस भीषण बीमारी ने किस तरह आक्रांत किया था, इसकी एक बानगी,’विकास ने अपनी बीमारी तब तक छिपाई जब तक उसकी जान पर न बन आई….कोरोना के दौरान हमारे सामने ऐस ढेरों मामले आए जो सिर्फ व्यक्ति द्वारा छिपाने की वजह से गंभीर बने…..ऐसे लोग जाने-अनजाने कोरोना के संवाहक भी बनते थे…..उस पर मीडिया में जिस तरह की खबरें दिखती थीं उससे व्यक्ति और भी डर जाता था और संक्रमण के लक्षण उभरने के बावजूद एक प्रकार के सेल्फ डिनायल मोड में चला जाता था जब तक कि उसकी साँसें उखड़ने न लग जाएं।’  यह बीमारी अचानक ही आई थी जिसका सामना करने के लिए किसी भी देश की सरकार तैयार नहीं थी।

ऐसे समय में भारतवर्ष की कोरोना-वारियर्स की टीम ने जिस उत्साह और धैर्य से उस चुनौती का सामना किया था वह अद्भुत और विलक्षण था। तभी तो देश उस विकट चुनौती से पार पा सका। यह भी लेखक का सकारात्मक संदेश है।

उपभोक्तावादी समाज की मनोदशा भी बड़े ही सार्थक ढंग से व्यक्त की गई है, ’जिस समय कोरोना का वायरस फेफड़ों को जकड़ लेता था और जब एक-एक सांस खींचना इंसान को तोड़ देता था तब शायद उसे जीवन की नश्वरता का बोध होता था। सब कुछ देकर बस किसी तरह अपना या अपनों का जीवन बच जाए इससे ज्यादा दिमाग में कुछ नहीं आता था।’ 

लेखक और उसकी टीम को एक सैनिक की जोखिमभरी ड्यूटी का अहसास तब होता है जब सिविल नौकरी में कार्यरत लोग कोरोना नाम के अदृश्य दुश्मन से जंग लड़ रहे थे जिसमें जान का खतरा बना हुआ था। इस अनुभव के माध्यम से लेखक की इस मानसिकता का बोध हो जाता है कि जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।

’अभूतपूर्व संकट अपने साथ अभूतपूर्व चुनौती लेकर आते हैं जिनका समाधान भी अनूठे ढंग से किया जाता है।….’न भूतो, न भविष्यति’ टाइप की मुसीबतें जिनके बारे में न कभी सोचा था, न ही कभी सुन रखा था।’  तथा ’फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के कथन,’अगर कोई शख्स यह कहता है कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो वह सरासर झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है।’ जैसे सुंदर वाक्यों की सहायता से लेखक अपने अनुभवों को आकर्षक तरीके से साझा करता है। अपने एक अनुभव ’शराफत और हिमाकत’ में वह मशहूर शायर निदा फाजली के एक शेर, ’एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी। जिसको भी देखना हो कई बार देखना।’ को भी अपने तरीके से अभिव्यक्ति देता है, ’यह अंदाज लगाना मुश्किल था कि उसका असली चेहरा सुबह वाला था या रात वाला है या फिर इन दोनों से इतर उसका कोई तीसरा चेहरा था जिसे वह आदमी सुबह एक मुखौटे से तो शाम को दूसरे मुखौटे से छिपाकर घूमता रहता है।’

लेखक इस तथ्य से पूरी तरह अवगत है कि कोई भी व्यक्ति किसप्रकार की सोच से चनौती का सामना कर सकता है तभी तो वह ’ईष्र्या और कर्तव्य’ में बड़ी ही शिद्दत से लिख देता है, ’हमारे लिए यह बात मायने रखती थी कि ईश्वर ने हमें समस्या का नहीं समाधान का हिस्सा चुना है।….और एकजुट रहकर बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना सफलतापूर्वक किया जा सकता है।’  बहुत सरल एवं रोचक वर्णनात्मक शैली के प्रयोग से वह पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता को व्यक्त करता है, ’मैदान के दक्षिण पश्चिम में एंट्री गेट से लगभग बीस मीटर की दूरी पर किनारे की तरफ एक शानदार तुण का पेड़ था।

यह ऐसी जगह पर खड़ा था जहाँ से बाँयी तरफ एंट्री गेट, दाहिनी तरफ खड़े वाहन और सामने हॉल की गतिविधियाँ साफ-साफ दिखाई देती थीं जिस कारण इस तुण के पेड़ की स्थिति कार्य की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण थी। अतःतय हुआ कि स्टेजिंग एरिया में समस्त समन्वय कार्य इसी तुण के पेड़ के नीचे किए जाएंगे। इस तरह यह तुण का पेड़ स्टेजिंग एरिया का केंद्र बिंदु बन गया था।’ इस तरह वह नेशनल कार्बेट के लिए विश्वप्रसिद्ध रामनगर के पीजी कॉलेज के स्पोर्ट ग्राउंड को अपनन लेखनी से अमर कर देता है।

’स्टेजिंग एरिया’ वास्तव में अनुभवों पर आधारित किस्सागोई शैली में रचित एक ऐसी पुस्तक है,जिसे पाठक अपने पुस्तकालय में संरक्षित कर सकता है। सीधी सपाट शैली में अभिव्यक्त यह पुस्तक पाठक को पढ़ने के लिए बाध्य कर देती है। इसमें अभिव्यक्त लेखक के आत्मीयता से भरे अनुभवों से पाठक इस तरह से जुड़ जाता है कि उसे यही लगने लगता है कि ये तो उसी के अनुभव हैं। लेखक से भविष्य में ऐसी ही अन्य पुस्तकों की प्रतीक्षा रहेगी।

समीक्षकः-डॉ.करुणा शर्मा

132,आम्रपाली अपार्टमैंट्स,प्लॉट नं 56,आई.पी एक्सटेंशन,दिल्ली-110092

प्रकाशकः-काव्यांश प्रकाशन,ऋषिकेश(उत्तराखंड)