अस्थायी राजधानी देहरादून समेत पूरे उत्तराखंड में आजकल दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया और उत्तराखंड सरकार के प्रवक्ता कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक के बीच बहस की चर्चा है। आप वाले कह रहे हैं कि मनीष सिसौदिया की चुनौती स्वीकार करने के बाद मदन कौशिक भाग खड़े हुए। भाजपा वाले कह कुछ नहीं रहे हैं, लेकिन दबी जुबान में भाजपा पक्षियों का कहना है कि ठीक हुआ भाजपा आप के ट्रैप में फंसने से बच गई, इस तरह की बहस का कोई औचित्य नहीं है। जो भी हो इस बहस की चर्चा पूरे फिंजा में फैली हुई है।
पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया उत्तराखंड में सक्रिय हैं। वह उत्तराखंड में अपनी पार्टी ‘आप’ को जमाने में लगे हुए हैं। एक तरफ नागनाथ दूसरी तरफ सांपनाथ से ढंसे गए लोग राज्य में एक और विकल्प की खोज में एक सीमा तक आप की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। लेकिन यह आकर्षण इतना नहीं है कि वह सीधे भाजपा के बराबर आकर खड़ा हो जाए। मनीष सिसौदिया एक ही झटके में भाजपा के मुकाबले खड़े होने का दांव खेलना चाहते थे। इसी रणनीति के तहत उन्होंने भाजपा के सामने बहस की चुनौती दी थी।
इस तरह की बहस में हार-जीत का कोई मतलब नहीं होता है। लेकिन यदि यह बहस हो गई होती तो प्रदेश में पहली बार प्रवेश कर रही आप भाजपा के मुकाबले खड़ी होने का ढिढौरा पीटने लग जाती। ढिढौरा पीटने में माहिर आप इस बहस के बाद कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों को किनारे लगाकर इस बहस का उपयोग आप के सबसे आगे निकल जाने के रूप में करती। यह बहस आप के लिए ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’ कहावत को चरितार्थ करने वाली साबित होती और आप फिर सातवें आसमान में विचरण कर रही होती।
मनीष सिसौदिया ने जब भाजपा को बहस की चुनौती दी तो भाजपा ने उसे आम चुनौती की तरह लिया और मदन कौशिक ने उसे स्वीकार भी कर लिया। लेकिन आप उन दूसरे दलों की तरह नहीं है, उसने इस मौके को भुनाने के लिए मंच सजाने में देर नहीं लगाई। यही नहीं इस मौके का भरपूर फायदा उठाने के लिए दूसरे चरण की बहस दिल्ली में कराने का आमंत्रण भी दे गए। यदि बहस हो जाती तो आप उसे भुनाती ही, नहीं हो रही है, भाजपा पीछे हट रही है, उसे भुनाने से आप कैसे बच सकती है। इसे सीधे भाजपा की हार के तौर पर भुनाने का अवसर आप कभी नहीं छोड़ेगी।
वैसे इस बहस का कोई औचित्य नहीं बनता है। क्या उत्तराखंड के राजनीतिक मैदान में सिर्फ भाजपा और आप हैं? नहीं यहां कांग्रेस भी है और दूसरे क्षेत्रीय दल भी हैं। इसलिए बहस सिर्फ दो के बीच होने का मतलब है कि और परिदृश्य में हैं ही नहीं। अमेरिकी चुनाव में दो उम्मीदवारों के बीच सीधी बहस होती है। क्योंकि वहां दो दलों के बीच आमने-सामने का चुनाव होता है। इस तरह की बहस आयोजित करने का एक मंच होता है। एक दायरे में यह बहस होती है। एक दल अपनी नीतियां बताता है और दूसरे की नीतियों में खोट निकालता है। दूसरा भी यही करता है। यह बहसें एक तरह से चुनावी माहौल को दिशा देने में सफल रहती हैं।
मनीष सिसौदिया और मदन कौशिक की बहस इस तरह के किसी दायरे में नहीं आती। दोनों सरकार के मुखिया नहीं हैं। दोनों उत्तराखंड को लेकर अपने-अपने दलों के संपूर्ण नीति नियंता नहीं हैं। इसलिए यह बहस सिर्फ बेमानी होती। बहस होती तो भी आप को फायदा पहुंचाती, नहीं हुई तो भी आप इसका फायदा उठाने में लगी हुई है। अब चुनाव तक भाजपा पर बहस से भागने का आरोप लगाती रहेगी, इसका फायदा उठाने की कोशिश करती रहेगी। भाजपा के रणनीतिकारों को इसका आभास देर से हुआ, इसलिए पहले चुनौती स्वीकार करने के बाद मदन कौशिक को पीछे हटना पड़ा।
मनीष सिसौदिया ने बहुत चालाकी के साथ दिल्ली में केजरीवाल माडल और उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत माडल के बीच मुकाबले की बहस रखी थी। वह केजरीवाल माडल के बहाने उत्तराखंड में जर्जर होती शिक्षा और बिजली, पानी, सड़क की कुव्यवस्था के बीच मुकाबला दिखाना चाहते थे। पिछले कुछ सालों में केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में सरकारी स्कूलों को माडल के तौर पर दिखाया है। सरकारी स्कूलों को पब्लिक स्कूलों के मुकाबले खड़ा करने के इस प्रयास की पूरे देश में चर्चा भी हुई। लेकिन क्या दिल्ली के सारे सरकारी स्कूल इस स्तर के बन गए?
दिल्ली में पहले से ही रोड-फ्लाइओवर का ढांचा खड़ा है, जिसमें केजरीवाल सरकार का कोई निजी योगदान नहीं है। लेकिन केजरीवाल सरकार दिल्ली में बिजली-पानी मुफ्त में देने की अपनी नीति को उत्तराखंड के सामने लालच के रूप में दिखाना चाहती है। यह मुद्दा आप को इसलिए सूट करता है, क्योंकि दूसरी तरफ भाजपा के चार साल के शासनकाल में उत्तराखंड के 3600 स्कूल बंद हुए हैं। यही नहीं कई आईटीआई, पालिटेक्टिन यहां तक कि कई आवासीय विद्यालय तक बंद हुए हैं। इस मुकाबले में केजरीवाल माडल अपने आप विजेता बन जाता है। यदि इसके साथ बिजली पानी मुफ्त मिल जाए तो कौन मना करेगा?
लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि केजरीवाल सरकार उस दिल्ली में चल रही है, जो घना बसा महानगर है। जहां दस दिन में पूरी दिल्ली के सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों का चक्कर लगाया जा सकता है। लेकिन उत्तराखंड की सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र बदरीनाथ क्षेत्र में केवल सड़क मार्ग से निकला जाए तो दस दिन में भी इसके हर कौने पर नहीं पहुंचा जा सकता है। इन हालात में दिल्ली माडल का उत्तराखंड माडल से कोई मुकाबला नहीं हो सकता है। उत्तराखंड में दिल्ली की बात करना पूरी तरह से बेईमानी है।
इसलिए इस तरह की बहसों का कोई मतलब नहीं रह जाता है। सिर्फ यह उत्तराखंड में आप को स्थापित करने में मदद कर सकती है। यदि ऐसी बहसों से आप उत्तराखंड की हालात सुधारने का दावा कर रहे हैं तो यह सिर्फ भ्रम फैलाने की कोशिश है। आप उत्तराखंड में आना चाहते हैं तो उत्तराखंड के हालातों में एक नए माडल की बात कीजिए दिल्ली माडल उत्तराखंड के किसी काम का नहीं हो सकता है।
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