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कोरोना संक्रमण की भयावहता को देखकर लगता है कि न जाने ये समय इतना कठिन,बेरहम और निर्दयी क्यों हो गया है। यह भी सच है कि समय की इस क्रूरता के पीछे कभी न कभी,कहीं न कहीं रहा मानव ही है। समय से मानव कभी नहीं जीत सका है,परन्तु समय को जीतने के मद में मनुष्य प्रकृति से जाने-अनजाने बैर जरूर मोल लेता रहा है। शायद इसीलिए इस बैर के परिणाम इतने भयावह हैं कि आज मनुष्य स्वंय को एक वायरस के सामने इतना असहाय,भयभीत और सहमा हुआ महसूस कर रहा है।
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कोरोना महामारी के तांडव को देख मानव के सर्वश्रेष्ठ और सर्व शक्तिमान होने का दंभ भी शायद चकनाचूर हो चुका है और यदि नहीं हुआ होगा तो भविष्य में इससे भयंकर परिणाम भुगतने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। आज मनुष्य प्रकृति से किए खिलवाड़ पर पश्चताप और विलाप कर रहा है,परन्तु कहीं इस विपदा से उबरने के बाद उसका ये पश्चाताप के आंसू केवल दिखावा तो साबित नहीं होंगे। यदि प्रकृति के प्रति आज भी मनुष्य के मन में कपट है तो भविष्य के उज्ज्वल होने की कल्पना करना व्यर्थ है। उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकृति प्रेमी होने का संकल्प करने मात्र से इतिश्री नहीं होगी,बल्कि इसे मनसा,वाचा,कर्मणा में आत्मसात् करना जरूरी है। मानव समाज इस वाक्य को जितना जल्दी आत्मसात करेगा उसे उतना ही अच्छा है।
प्रकृति ने मानव को उसके प्रति क्रूरता छोड़ने के लिए समय-समय पर छोटी-बड़ी आपदाओं के रूप में चेताया और शायद कुछ समय के लिए मानव प्रकृति के दोहन के प्रति सचेत हुआ है। परन्तु मनुष्य अपनी भूलने की प्रवृत्ति के स्वभाव के कारण प्रकृति से छेड़छाड़ करता ही रहता है। मनुष्य की प्रकृति से द्वेष प्रवृत्ति स्वरूप ही आज सुनामी,हिमखण्डों के टूटने और केदारनाथ जैसी आपदाएं पिछले दिनों हमने देखा,फिर भी मनुष्य ने इन सबसे सबक नहीं लिया। इसीलिए आज सूखा,अतिवृष्टि,तूफान, अकाल,भूकंप,महामारी एवं बाढ़ जैसी आपदाएं प्रकृति में कोप बन मानव समाज पर कहर ढा रही हैं।
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वर्ष 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में प्रकृति ने अपना ऐसा रोद्र रूप दिखाया कि लगातार भारी वर्षा और भू-स्खलन के कारण करीबन तकरीबन 50 हजार से से ज्यादा लोग काल कलवित हो गए। एक तरह से यह सरकारी आंकड़ा है,जबकि जमीन पर हालात कैसे होंगे यह तो सोचने का विषय है। हर साल मुंबई और विहार में आने वाली बाढ़,अलग-अलग क्षेत्रों में आने वाले भूकंप, लगातार बादल फटने की घटना,महामारी और न जाने कितनी ही आपदाएं मानव के दृष्टिहीन विकास की बली चढ़ रही प्रकृति का ही अभिश्राप हैं।
आज मानव सभ्यता के लिए अभिशाप बन चुका कोरोना भी संभवतः मनुष्य की ऐसी ही किसी गलती का दुष्परिणाम हो सकता है। कोरोना काल से उबरने के बाद मानव को ये सीख तो लेनी ही चाहिए कि प्रकृति के प्रति द्वेष कैसे उसके आसमान छूते विकास के दंभ को एक ही झटके में धराशायी कर देता है।
दरअसल, कोरोना को लेकर अलग-अलग तरह के दावे सामने आ रहे हैं। पहले इसे बायोवेपन माना जा रहा था फिर इसे मैनमेड वायरस बताया गया। खास बात यह है कि हाल ही में ऑस्ट्रेलिया व अमेरिकी सरकारों ने इसे चीनी का ही जैविक हथियार माना है, लेकिन क्या यह उतना सच है। यह तो आने वाला समय ही बताएगा और यह सच साबित होता है तो यह भी प्रकृति के जीवन चक्र में मनुष्य का सीधा हस्तक्षेप होगा और इसके परिणाम भी घातक ही सिद्ध होंगे।
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दूसरी ओर से देखा जाए तो खान-पान, रहन-सहन और जीवन जीने की संस्कृति में बदलाव,ना खाने योग्य खाना,जैविक पारिस्थितिक तंत्र से छेड़छाड़ के नतीजों ने कोरोना वायरस जैसी महामारी को जन्म दिया है। चीन के वुहान में चमगादाड़ के भीतर पाए जाने वाले इस वायरस ने पूरी दुनिया को तहस-नहस कर दिया है। गौर करने वाली बात है कि चीन में वुहान स्थित जैविक प्रयोगशाला जहां संदेह के घेरे में रही है वहीं यहां का एनिमल मार्कैट पूरी दुनिया में एक विभत्स और मनुष्य की सबसे अलग प्रवृत्ति के कारण पिछले दिनों चर्चा में रहा है। बेहरहाल, यदि यह वायरस जानवरों से फैला है प्रकृति के कहर का यह चक्र निकट भविष्य में मिटने के आसार तो नजर नहीं आ रहे।
देखने वाली बात यह है कि कैसे एक छोटे से वायरस के सामने उसके आसमान छूते मेडिकल साइंस ने घुटने टेक दिए हैं,विकास का पैमाना मानी जाने वाली कंक्रीट से बनीं इमारतें एक बीमारी के सामने खोखली नजर आ रही हैं,विकास के नाम पर काटे गए वृक्षों ने ऑक्सीजन के लिए मानव को उसकी औकात दिखा दी है। ऐसे कितने की सवाल हैं जिनके उत्तर मनुष्य को खुद के सुरक्षित भविष्य के लिए तलाशने होंगे अंत में केवल इतना कि मनुष्य प्रकृति का विरोध कर अपने लिए विकास का जो रास्ता बना रहा है, वह उसे केवल विनाश की ही ओर ले जाएगा।