गांधी,जो प्रासंगिक होकर भी आज अप्रासंगिक हो गये

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हेम चंद्र सकलानी

यह सत्य है कि किसी महापुरूष का सारा चिन्तन सर्वकालिक उपयोग का नही होता। सिद्धान्तों, दर्शन, आदर्शो, का निर्माण परिस्थितियों के दबाव में होता है। बदलते परिवेश के साथ परिस्थितियों के दबाव में ही उनमें परिवर्तन भी होता है। परन्तु यह भी कटु सत्य है कि अक्सर व्यक्तिगत अथवा दलीय या राजनैतिक स्वार्थो के दबाव में दर्शन, सिद्धान्तों आदर्शो कि धज्जियां तक उड़ा दी जाती है।

स्वतन्त्रता आन्दोलनों के दिनों में सामाजिक राजनैतिक विसंगतियां विरोधाभास थे मगर छोटे-छोटे पौधों के रूप में थे सत्ता लिप्सा ने आज जिन्हें विशाल वट वक्ष का रूप दे दिया है।  अफ्रीका में जब गांधी जी वकालत कर रहे थ तब वे सूटेड-बूटेड गॉधी थे, पर जब स्वतन्त्रता की अलख जगाने के लिये भारत की भूमि पर उतरे थे तब एक संत की तरह पुरानी गुजराती वेशभूषा में उतरे थे। संत की तरह आये तो फकीर की तरह चले भी गये थे दुःखी होकर। शायद ही कोई स्वीकार करे कि इस देश में गॉधी का कोई राजनैतिक स्वार्थ रहा होगा। किसी समय विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या का समर्थन और राजनैतिक शक्ति हासिल करने वाला व्यक्ति चाहता तो क्या नहीं कर सकता था। क्या नहीं पा सकता था। दुनिया कौन सा सुख चैन एशों आराम उसे नही मिल सकता था। स्वतन्त्रता के बाद जिस तरह लोगों ने नेताओं ने आन्दोलन में भाग लेने का मुआवजा देश से वसूला, कौन नहीं जानता, पर अफ्रीका से आने के बाद एक चश्मा, एक लाठी, एक खडाऊ, एक घड़ी, एक धोती, ही मात्र अंतिम समय तक उनके साथ रहे थे।

विश्व के इतिहास में गांधी जी जैसा कोई दूसरा उदाहरण हमें मिल नहीं पायेगा। शायद इसीलिए महान वैज्ञानिक आंइस्टीन को कहना पडा था कि आने वाली पीढी कभी विश्वास नहीं करेगी हाड-मांस के एक ऐसे पुरूष ने भी इस धरती पर जन्म लिया होगा।

गांधी जी पर बहुत से आरोप लगाये जिसमें भारत विभाजन का अनेक लोग उन्हें दोषी मानते हैं, ये आरोप सिर्फ मूर्ख लोग ही लगाते हैं। गॉधी कभी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने विभाजन का प्रस्ताव पास होने से पूर्व कॉग्रेस कमेटी के अधिवेशन मे कहा था कि विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार न किया जायें। पर तत्कालीन परिस्थितियां ऐसी हो गयी थी कि विश्व का कोई व्यक्ति, सेना, विभाजन को टाल नहीं सकती थी। नोआखोली के दंगों में उन पर आरोप लगा कि उन्होनें मुसलमानों को बचाने के लिये आमरण अनशन किया पर यह कटु सत्य था, यदि वे आमरण अनशन न करते तो हजारों हिन्दु मर जाते और खूंखार सोहरावर्दी आत्मसमर्पण कदापि न करता। दलितों के उत्थान का युग भी गॉधी के समय से ही शुरू हुआ। 1928 में लक्ष्मी नारायण हिमणघाट 1932 में वर्धा के मंदिरों को उन्हीं के प्रयासों से हरिजनों के लिये खुलवाया गया। हरिजनों को मन्दिर में प्रवेश देने के लिए 1932 में उन्होने ही धूलिया जेल में आमरण अनशन किया।

1933 में साबरमती आश्रम की जमीन उन्हीं के प्रयासों से हरिजन संघ को प्राप्त हुई थी। 1933 में हरिजनों के उत्थान अस्पृश्यता निवारण के लिये उन्होने सारे देश का दौरा किया। कुष्ठ रोगी जिन्हें छूना क्यो देखना भी लोग पसन्द नहीं करते थे ऐसे रोगी की अपने हाथों से मालिश किया करते थे। कितने नेता कितने समाज सुधारक हैं आज जो मैला ढोने वालों के मुहल्ले में रहने का साहस कर सकते हैं। परन्तु गॉधी जी ने कुछ दिन मात्र इसलिए उनके साथ बिताये कि उनकी समस्याओं कठिनाईयों को समझ सकें। उन्हें राष्ट्र की समानता की मुख्यधारा में ला सकें। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में सत्याग्रह, सविनय अविज्ञा, गोल मेज कान्फ्रेंस, अहिंसा, स्वदेशी, अस्पष्यता, छुआछुत, भेदभाव, डांडी मार्च, भारत छोडों,कहा-कहॉ,गॉधी जी दिखाई नहीं पड़त।

कल्पना कीजियें स्वाधीनता आन्दोलन के ऐतिहासिक पष्ठों से घटनाओं से यदि गॉधी को हटा दिया जाये तो फिर क्या शून्य नहीं रह जायेगा। यद्यपि अनेक देशभक्तों ने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अपनी आहुतिं दी है। जिनका योगदान किसी भी दष्टि से कम नहीं ऑका जा सकता है। आज चैंलेन्ज रूपी शोध का विषय लोगों के सामने आ सकता है कि क्या ऐसे ही भारत की कल्पना गॉधी जी ने की थी कि सड़कों पर सरकार के शासन-प्रशासन के संविधान के सारे कानूनों की धज्जियॉं,गुण्डे,अपराधी उड़ायेंगे,जिन्हें गोली मार दी जानी चाहियें वे मुआवजा पायें,सम्मान पायें। गॉधी जी के साथ गॉधी युग का अंत हो गया। महापुरूष जन्म लेते हैं,मरते हैं पर उनके सिद्धान्त, आदर्श,दर्शन कभी नहीं मरते। वे समय के साथ पनपी विरोधी शक्तियों के कारण समय के गर्भ में अवश्य दफन कर दिये जाते हैं। पर मानव को समय काल,परिस्थितियों को जब उनकी आवश्यकता पडती हैं वे पुनःअंकुरित होते हैं। निःसन्देह गांधी जैसा व्यक्तित्व न पैदा हुआ था और न पैदा होने की सम्भावना है।