आज पूरे विश्व में हिंदी की राष्ट्रीय और वैश्विक स्थिति के विषय में चर्चा हो रही है। यह पहला अवसर भी नहीं है,हिंदी को लेकर चर्चा हो रही है। निर्वाध रूप से यह सिलसिला आज़ादी के बाद से ही चलता आ रहा है। यह अवधि कम नहीं होती,अब कब तक हम इस तरह जुटते रहेंगे,चर्चा करते रहेंगे,और हमेशा बेनतीजा रहेंगे। वैश्विक धरातल पर हिंदी के विकास में सूचना प्रद्यौगिकी तथा जन संचार माध्यमों की भूमिका पर चर्चा हम करते रहे हैं,तो एक तरह से हम प्रभाव और परिवर्तन की बात कर रहे हैं,मै यह नहीं कह रहा हूँ, हम जीवन मूल्यों पर टिके रहे या उनसे मुक्ति ले ले,मूल्यों जैसे कुछ पहलुओं पर मज़बूती से खड़े रहते हुए भी,हमारे अंदर परिवर्तन की अपरिहार्यता को स्वीकार करने के लिए विवेक जागता है और हम एक ही देश में अलग-अलग ऋतुओं को स्वीकार करते हैं-ऋतुओं के अनुरूप स्वयं को ढाल लेते हैं। मैं समझता हूँ,हमें जीवन के किसी भी तरह के परिवतन को स्वीकार करना चाहिए।
मैं,एक उपन्यासकार,कथाकार या कहूँ एक रचनाकार हूँ। मन मस्तिष्क में आलोड़न-विलोड़न होता है तो,उसका प्रकटीकरण शब्द,रंग और रेखाओं के द्वारा या किसी माध्यम से करता हूँ-जिस भी रूप में या विधा में करू,किंतु एक रचनाकार के नाते मुझे एक भाषा की जरुरत हमेशा रहती है, जिसमें मैं होता हूँ-और जो मेरे जीवन का ग्राफ को दर्शाती है। इसमें मेरा वह जीवन दर्ज़ होता है,जो मैंने जिया और अनुभव किया है-उसमें मेरे जीवन की सफलता-असफलता और मेरी दृष्टि भी अप्रत्याशित शामिल हो जाती है। वह दृष्टि जो सार्थकता-निर्थकता का प्रकटीकरण करती है। इसके लिए मुझे भाषा के साथ-साथ विवेक की भी जरुरत होती है। मेरी हरदम कोशिश रह्ती है, जो कुछ मैं लिख रहा हूँ,उसे अपने विवेक से लच्छेदार भाषा में लिखने का प्रयास करू,ताकि मेरे दृष्टिकोण का प्रभाव मेरे पाठक या पाठक समाज पर पढ़ सके। इसे मेरी सामान्य दृष्टि की उपज भी आप कह सकते हैं-लेकिन यहाँ भाषा के प्रभाव व दृष्टि का जोखिम उठाने से पहले, उसके लिए प्रश्न भाषा की ताकत का है-जिसके दूरगामी परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं। इसके लिये मैं दो उदाहरण देकर अपनी बात कहना चाहता हूँ।
पहला-महाभारत के एक प्रसंग से,जिसका सीधा सम्बंध भाषा से है-हम भारतियों के लिए गर्भावस्था में शिशु का मस्तिष्क के जाग्रत रहने का ज्ञान आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि हम अर्जुन,उसके पुत्र अभिमन्यु और चक्रव्युह की कहानी जानते हैं,अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्युह संरचना को भेदना सीख लिया था,जब अर्जुन यह बात अपनी गर्भवती पत्नी को बता रहे थे,उसी समय अर्जुन को श्रीकृष्ण ने पुकार लिया और अर्जुन अपनी पूरी बात नहीं कह सके-अभिमन्यु चक्र्व्युह से बाहर निकलने की का रह्स्य नहीं सीख पाया। यहाँ अभिक्यक्ति का माध्यम भाषा थी। भाषा के प्रवाह को खंडित करने का दुष्परिणाम यह हुआ कि अभिमन्यु मारा गया। माना कि यह महाभारत काल की कहानी है,मुझ जैसे लेखक को चर्चित होने को,यह शरारत,बचकानी हरकत सूझ सकती है,लेकिन वेद व्यास ने एसी शरारत या हरकत नहीं की होगी। यह प्रसंग तब जितना प्रसंगिक था और आज भी उतना ही है।
इसके समर्थन में दूसरा उदाहरण देता हूँ। आजकल यूरोप में बहुत सी गर्भवती महिलाये इस उम्मीद में अपने पेट पर ऑडियो हेड फोन रखते हुए अपने अजन्मे बच्चे यानि गर्भस्थ को भाषा ज्ञान दे रही हैं,ताकि जन्म के बाद शिशु को कई भाषाओ का ज्ञान हो सके-या भाषा सीखने में कोई मुश्किलात नहीं आए।
यह सही है कि यह विज्ञान का युग है,तकनीक से विज्ञान ने अपनी भाषा का अनुशंधान कर लिया है,जिस रूप में हमारे जीवन में वैज्ञानिक भाषा का मह्त्व है,उतना ही मह्त्व हमारी दैनिक सरोकार की भाषा का है,जिसे हम हमारी चेतना की भाषा भी कह सकते हैं,उससे हमारी सामाजिक सरोकारो की भाषा का मह्त्व कम नहीं हुआ बल्कि चेतन भाषा के वगैर वैज्ञानिक भाषा में चिंतन सम्भव नहीं,वह पंगु होती है।
कोई भाषा केवल चिंतन और संवाद का माध्यम नहीं होती,वह व्यक्ति की सामाजिक पहचान को भी सुनिश्चित करती है। जब हम राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते हैं,तो भाषा हमारे क्षेत्र को,राज्य को प्रकट करती है,तो वैश्विक स्तर पर हमें राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हुए मिलती है। वह राष्ट्र की पहचान का प्रकटीकरण करती है। वैश्विक स्तर पर चिंतन की भाषा में भिन्नता हो सकती है किंतु समान प्रगति के लिए एक वैज्ञानिक भाषा है, जो सर्वमान्य भाषा है,तो क्या हम सामाजिक सरोकारो की भाषा को वैश्विक स्तर पर एक करने में सफल हुए हैं? क्या हम कह सकते हैं, हिंदी भाषा हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करने में सफल हुई है? किसी हद तक इन दोनों प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक नहीं दिया जा सकता। हाँ,इतना अवश्य कह सकते हैं,हिंदी हमारे देश में सर्वाधिक बोली व समझी जाने वाली भाषा है। यह हमारी सबसे बड़ी संपर्क भाषा है। सबसे बड़ी सरोकारों की भाषा है,वैश्विक स्तर पर भी हमारे पास इसका होने का एक माकूल उत्तर होता है। दुनिया के जिस कोने में हम होते हैं,तो भारतीय होते हैं,हमारी भाषा हिंदी होती है और हम भारतीय अपने उत्सव भी इसी भाषा में संवाद करते मनाते हैं।
यदि यह सब है तो फिर हम यहाँ क्यों जुटे हैं? यह प्रश्न मुंह बाये क्यों खड़ा है? इस पर मेरा उत्तर है–भारत दुनिया का सबसे घनी आवादी वाला दूसरा देश है। इसकी आवादी एक सौ पैंतीस करोड़ को छूने को है। दुनिया के हर कोने में भारतीय जा बसे हैं। उनकी संपर्क की भाषा हिंदी है। एशियाई देशों में हिंदी अपरिचित भाषा नहीं है। सिगापुर,हांगकांग,नेपाल,पाकिस्तान,बंगलादेश, नेपाल और इंडोनेशिया में तो हिंदी के लिए कोई परेशानी नहीं है–भले ही वहां के लोग हिंदी बोलने का अभ्यास नहीं रखते हों,लेकिन हिंदी की समझ और भारतीय मुद्रा को अच्छी तरह समझते हैं। उनके यहाँ व्यवहार में,इसका चलन बखूबी देखा जा सकता है। खाड़ी देशों में तो हिंदी का अच्छा प्रभाव हम देखते ही हैं। यही नहीं,साउदी अरब में भी हिंदी में काम चला सकते हैं। वहाँ हिंदी रोज़मर्रा के कार्यों में,परिचलन में,उनके व्यवहार में प्रयुक्त होती है।
दुनिया के उन देशों की बात ही अलग है,जहाँ भारतवंशी बहुसंख्य में हैं। जैसे-मोरिशस,सूरीनाम, फिजी,गयाना और त्रिनिनाड-इन देशों में हिंदी का अच्छा प्रभाव है। मैं यह कह सकता हूँ,दुनिया में जहाँ भी भारतीय हैं,वहां हिंदी है,यदि मैं ठीक हूँ,तो दुनिया की दो संपर्क भाषाएँ-अंग्रेजी और स्पेनिश हैं,तो एक तीसरी भाषा हिंदी भी है। संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी को लगभग ५१ करोड़ लोग,स्पेनिश को ४२ करोड़ लोग और हिंदी को ४९ करोड़ लोग प्रयोग में लाते हैं। कुछ और भाषाएँ भी हैं–जिसमें चीनी को बहुत बड़ा तबका बोलता है।
इसी तरह फ्रेंच और रूसी भी हैं। ये भाषाएँ अपना बोलने का महत्व तो रखती हैं,किन्तु,संपर्क भाषा में चलन होने के महत्व को प्राप्त नहीं कर सकी हैं। यानि ये संपर्क भाषाएँ नहीं हैं। इन भाषाओँ का अपना एक निश्चित समाज और क्षेत्र हैं-उससे बाहर नहीं निकल सकी हैं। जबकि हिंदी ने अपने पंख फैलाकर ऊँची उड़ान भरी है। यह भारतीय राज्यों के भाषा सीमाओं को तोड़कर अंग्रेजी और स्पेनिश की भांति,इसने दुनिया भर में,अपने डैने फैला दिए हैं। अब इसकी उड़ान को कोई भी बाधित नहीं कर सकता।
हिंदी भाषा के महत्व का एक पक्ष और भी है,जिसे भारत के परिप्रेक्ष्य में हम देख सकते हैं. लगभग दो-तीन दसक पूर्व जब भारत में,वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ था–हमारा भारतीय बाज़ार उदारीकरण की तरफ उन्मुख हुआ था। इस अवधि पर दृष्टि डालें,तो एक बात से सभी सहमत होंगे,बाज़ार किसी संरक्षण को नहीं मानता। बाज़ार की अलग संस्कृति होती है,उसकी व्यवहार की बोली-भाषा एकदम अलग है। उसका कायदा,ककहरा और नियम एकदम अलग होते हैं। वह जाति-धर्म को भी नहीं देखता–वह सिर्फ उपभोक्ता को देखता है। वह उपभोक्ता कौन है? आम आदमी जिसे आप लोक कहते हैं। उस लोक में हिंदी ने उदारीकरण के दौर में विष्फोट क्यों किया? दुनियाभर की कम्पनियों ने अपनी बाज़ार की भाषा,हिंदी को क्यों चुना? संभवतःलोक तक अपनी पहुँच बनाने के लिए। क्या आपने उन कंपनियों के अंग्रेजी के विज्ञापन देखे हैं? यदि हाँ,तो कितने? उनकी संख्या कितनी–सीमित ही होती है। उनकी संख्या हिंदी विज्ञापनों के बराबर तो नहीं होती।
आज विश्वभर में भारतीय फिल्मे और टेलीविजन कार्यक्रम देखे जाते हैं। प्रतिदिन लाखों-लाख दर्शक सिनेमाघरों में और अपने सुवाह्य साधनो से,घर के बाहर फिल्मे देखते हैं, प्रतिदिन अरबो रुपयो का व्यवसाय होता है.सभी लोग जानते हैं,सिनेमा का अर्थशास्त्र बहुत जोखिम भरा है। टेलीविजन के माध्यम से कंपनियों कई करोड़ दर्शक रोज़ घर बैठेमुफ्त सिनेमा देखते हैं। हिंदी फिल्मो और विडिओ में गीत–संगीत का अन्योन्यास्रित साथ है,जो दुनिया भर में यूट्यूब,वर्डसेप और ट्वीटर जैसे आधुनिक माध्यम से पहुंच रहे हैं। यहाँ तक कहा जाता है-इन माध्यमों से,हिंदी में विज्ञापन के देने से,उत्पाद की पहुँच दस गुना बढ़ जाती है।
हमारे देश में इस समय आकाशवाणीके 225 केंद्रो और 361 केंद्र ट्रांसमीटर के साथ–साथ लगभग 400 F M और सामुदायिक रेडिओचैनल प्रसारण कर रहे हैं। इनमें अधिकांश चैनल हिंदी में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं। हिंदी को सर्व स्वीकार्य बनाने में रेडिओकी उल्लेखनीय भूमिका हमेशा रही है। अब तो,वही लोकप्रियता टेलीविज़न चैनल ले चुके हैं। सरकारी और निजी टेलीविज़न चैनल की हमारे यहाँ भरमार है। टेलीविज़न को हमारे जीवन में क्रांतिकारी कदम के रूप में देखा गया था,किंतु,आज जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा,उसके सरोकार नहीं बचा, जो इससे अप्रभावित रह चुका हो। सामान्य खबर से लेकर दुनिया की बड़ी खबर तक,पौराणिक कथाओं पर बने धारवाहिक से लेकर वर्तमान की हर बड़ी,उठा पटक तक को अपने कार्यक्रमों का हिस्सा बनाते हुए हम देख रहे हैं। किसी न किसी रुप में हमारे निजी और समुहिक निर्णयों तथा निर्णय की क्षमता को तक प्रभावित कर रहे हैं। हर चैनल हिंदी में बहस,मनोरंजन कार्यक्रम और विज्ञापनों से अटापडा होता है। इससे चैनल की पहुँच पांच गुना बढ़ जाती है।
हिंदी को देश–दुनिया में यानि लोक में पहुचाने में बोलिउड फिल्मों के उल्लेखनीय अवदान को भुलाना आसान नहीं,उसकी पहुंच दिनों दिन बढती ही जा रही है। सोशल मिडिया,ब्लोग,मैसेंजर, वर्डसेप,ब्लॉगर,ट्विटर, इंटरनेट व मोबाइल के द्वार आज युवा हिंदी भाषा का सबसे अधिक प्रयोग कर रहे हैं। जब इंटरनेट ने भारत में पांव पसारने शुरु किए थे,उस समय यह आशंका व्यक्त की गयी थी,कम्प्यूतर के आगमनसेदेश में फिर से अंग्रेजी का बोलबाला हो जायेगा,वह धारणा भी निर्मूल सिद्ध हुई। बल्कि हिंदी की स्वीकारिता बढ़ी ही है,हिंदी वेबसाइट और ब्लॉग ना केवल चल रहे हैं,बल्कि देश के साथ–साथ विदेशो से भी लोग इन पर अपनी सूचनाओ का आदान-प्रदान कर रहे हैं-यह इसका एक सुखद पहलू है। इस प्रकार इंटरनेट,वर्डसेप भी हिंदी के प्रसार में सहायक होने लगा है। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है,जिस भाषा में सबसे अधिक व्यवहार करते हैं,व्यवहार ही उस भाषा के विकास की,सबसे ऊंची पहचान बन जाती है। मिडिया ने हिंदी के विकास में हमेशा उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।
यदि यह सब कुछ है तो फिर हम चिंतित क्यों हैं? हमारा राष्ट्र भाषाई दृष्टि से अपनी पहचान क्यों नहीं बना रहा है? मैं समझता हूँ-यह सिर्फ भाषा में संवाद का मसला नहीं है। यह भाषाई सौन्दर्य से आत्मिक सौन्दर्य का मामला है। इसको वैश्विक स्तर पर पहुँचाने की कमाना सिर्फ, हिंदी प्रान्तों की कमानाभर नहीं है,यह हर भारतीय की आवाज़ है। उनकी इच्छाओं से जुड़ा मसला है–यह उनकी पीड़ा है। हर प्रदेश के हर व्यक्ति की आत्मा और अस्मिता का प्रतिनिधित्व करने वाली हिंदी भाषा-येसी भाषा,जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में एक सिरे से दूसरे सिरे तक बोली और समझी जाती है,जिसके द्वारा प्रत्येक भारतीय के जीवन,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपनी सुरक्षा जैसे मौलिक अधिकारों को समझने और जानने की सुविधा देती है। उसके लिए सरकार से दिशा निर्देश के साथ-साथ दृढ इच्छा सकती क्यों नहीं दिखाई जाती?
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में जिस तरह हिंदी का आधार कम,उसके प्रति उदासीनता,उपेक्षा कर अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है–कही यह देश की गंभीर समस्या तो नहीं बनने जा रही है? इससे हमारी अहम् राष्ट्रिय संगमनी वसुनाम या भारतीयता तो नष्ट नहीं होने जा रही है? हमारी गंगा- जमुनी सांस्कृतिक पहचान तो नष्ट होने जा रही है?
मुझे लगता है,इन गंभीर समस्यों से हमारे देश का राजनैतिक नेतृत्व अपरिचित नहीं है–किन्तु, उसे इसकी परवाह नहीं है। हमारी भाषा का नुकशान–उनकी नज़र में आर्थिक प्रगति की दृष्टि से भी अधिक चिंता का विषय नहीं है। यह देश की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द्य के लिए गंभीर खतरा है। इसकी अनदेखी से देश में समरसता,समानता और प्रगति के समान अवसर प्राप्त करने के अधिकार ख़त्म होते जा रहे हैं। रोज़गार का संकट और युवाओं में हतासा का यही कारण तो नहीं। महँगी होती जा रही शिक्षा,तकनीकी शिक्षा पर सरकार द्वारा खर्च की जा रही धनराशि के उपरान्त,बौधिक पलायन को रोकने में कारगर कदम क्यों नहीं उठा रही है? तकनिकी क्षेत्र हो या मेडिकल क्षेत्र में भारी व्यय के बावजूद देश को समुचित दोहन का लाभ क्यों नहीं मिल रहा है? हमारा नेतृत्व चीन,जापान,कोरिया,रूस फ़्रांस और जर्मनी से क्यों नहीं सीखना चाहता-कि भाषा का महत्व आर्थिक चिंता से अधिक प्रार्थमिक होना चाहिए।
भाषा और सांस्कृतिक सौहार्द्य को हम जुमले के रूप में ले रहे हैं,किन्तु जमीनी हकीकत में बदलने के लिए ढिलाई बरत रहे हैं-इस समस्या को अनदेखी कर ठन्डे बसते में रख रहे हैं। इसके परिणाम बेरोजगारी,व्यभिचार और राजकोषीय हानि हो रही है। इसके पीछे छुपी आपकी मंशा इस भाषा की यह कहने की सामर्थ्य से डर तो नहीं,इस भाषा में सत्य,कला और सौन्दर्य है। हिंदी को हर कोई उच्च शिखर पर देखना चाहता है। जीवन के लिए पारदर्शिता चाहता है। इसके लिए सभी चिंतित हैं,यह चिंता तब तक बनी रहेगी? जब तक भारतीय संविधान में इसकी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट नहीं हो जाती। जब तक अंग्रेजी को अनंतकाल तक बने रहने का अभयदान ख़त्म नहीं हो जाता। भारत की संसद द्वारा हिंदी भाषा का संस्कार नामक सांस्कृतिक उत्कर्ष अथवा उसका शुद्धिकरण विधिविधान से नहीं किया जाता. राष्ट्रीय शुद्धिकरण होने के उपरान्त वैश्विक पटल पर उसे समुचित रूप में प्रतिष्ठा दिलाने में फिर कठिनाई नहीं होगी। यदि ऐसा करने में,हमारा राजनैतिक नेतृत्व देर करता रहा,तो हमारा नैतिक पतन के साथ-साथ सांस्कृतिक पतन होना निश्चित है।
अंत में,मैं,इग्लेंड के प्राचार्य रुपर्ट स्नेल को याद करना चाहता हूँ,उन्होंने मेरी ही नहीं,आपके,हम सबके मन की बात कही है–सम्भवतह हमारे रजनैतिक नेतृत्व के लिए भी- “हिंदी जिंदगी का हिस्सा है,हिंदी जिन्दा है,हिंदी किसी वर्ग या वर्ण या जाति या धर्म या मज़हब या पंथ या देश या संस्कृति की नहीं है,हिंदी भारत की है,मारीशस की है,इंग्लेंड की है,सारी दुनिया की है,हिंदी आपकी है,हिंदी मेरी है।”