Harela Festival:-हरेला संवाद-जब गांव बंजर हो रहे हैं तो हरेला कैसे मनाये?

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धाद द्वारा हरेला माह के अट्ठाइसवे दिन वीरान होते गाँवों के सवालों पर एक चर्चा का आयोजन किया गया। धाद की ओर से बोलते हुए किशन सिंह ने कहा कि संस्था 2010 से हरेला  मनाती आयी है और यह हमारे प्रयासों का ही असर है कि हरेला को राज्य पर्व  का दर्जा मिला और यह प्रदेश भर मे मनाया जाने लगा है। क्योंकि हरेला मुख्यतःकृषि का पर्व है और पहाड़ में मनाया जाता रहा है, और यह प्रश्न कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे कई साथी हमसे  पूछते भी थे, पर आज हम उसी प्रश्न को इस गोष्ठी के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं कि जब ” गांव बंजर हो रहे हैं तो हरेला कैसे मनाये?”।राज्य में खेती के लिए भूमि सिकुड़ती जा रही है।

इस पर्वतीय क्षेत्र में 90 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। लेकिन वर्त्तमान में केवल 20 प्रतिशत भूमि ही कृषि योग्य बची है,शेष 80 प्रतिशत अप्रयुक्त है या फिर वह बेची जा चुकी है। खेती ना होने का असर न केवल मनुष्यों बल्कि पूरे पर्यावरण पर पड़ता है I कई प्रकार की फसले और जीव-जंतु आज लुप्त हो गए है या लुप्त होने की कगार पर है I

कृषि उद्यान विशेषज्ञ डा.राजेंद्र कुकसाल ने बताया की उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल हिमालय की तराई से लेकर बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों तक फैला हुआ है, जिसके कारण प्रदेश की जलवायु में अत्यधिक विविधता पाई जाती है,जो सभी प्रकार के कृषि एवं बागवानी फसलों के लिए अनुकूल है। 

पहाड़ी क्षेत्रों में जोत का आकार कम व विखरा होना, चक्कवन्दी का न होना, बर्षा आधारित खेती, जंगली जानवरों सुवर बन्दर से फसलों को नुक़सान,प्राकृतिक आपदाओं से फसलों को होने वाले नुक़सान,गुणवत्ता युक्त फसल निवेशों की कमी एवं समय पर न उपलब्ध होना,आधुनिक तकनीकों के प्रचार प्रसार में कमी,ढांचा गत एवं परिवहन सुविधाओं का अभाव,विपणन में विचौलियों का बाहुल्य, भंडारण एवं प्रसंस्करण सुविधाओं का अभाव, तुड़ाई उपरान्त प्रबंधन सुविधाओं का न होना,अनुसंधान विकास एवं प्रसार क्षेत्र में कार्यरत विशेषज्ञों एवं कृषकों में समुचित समन्वय का अभाव,योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता का न होना आदि कई समस्याएं हैं। जिस कारण पहाड़ी जनपदों में अपेक्षित उद्यान विकास नहीं हो पा रहा है।

अपने विचार रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर सुन्दरियाल ने कहा “जिंदगी संघर्ष में ही मुस्कराती है सदा, गर नहीं विश्वासः तो संघर्ष का परचम उठा कर देखिए”। यह संघर्ष लगातार चल रहा है, लेकिन विश्वासःहै “कि कैरी की सब कुछ हूंद। बस एक मंत्र कु जाप लगातार होना चाहिए, “लग्यां छौ”।  न इने कि ना उने की। उन्होंने बताया कि पिछले 8 -9 साल से इसी मंत्र के तहत 200 नाली से ज्यादा बंजर खेत वे आबाद कर कृषि बाग़वानी पर काम कर रहेहैं। 800 से ज्यादा फलदार पेड़ और हजारों बड़ी इलायची की पौध के साथ उन्होंने साग सब्जी, मसाला और दालें भी उगाई है।

कृषि बाग़वानी के लिए उम्मीदों का माहौल बनाने का प्रयास लगातार कर रहे है ताकि बंजर खेत आबाद हों,  खेतों से उत्पादकता बढ़े, खेत आय के साधन बने लेकिन सरकार की प्रथमिकता में बंजर खेत को आबाद करना नहीं है। और इसी अनदेखी के कारण जो खेत उत्पादकता के साथ आय का स्रोत होते और पलायन रोकते वो खेत आज जंगली झाड़ियां और जंगली जानवरों के साथ लोगों को पलायन के लिए मजबूर कर रहे हैं।

इस अवसर पर डॉ.जयंत नवानी,शांति प्रसाद नौटियाल,दीपक खंडका,अंजली पालीवाल,आशा डोभाल,उत्तम सिंह रावत,सत्य प्रकाश जोशी,टी.आर बरमोला,डी सी नौटियाल,गणेश उनियाल,शुभम,विकास बहुगुणा,साकेत रावत,सुशील पुरोहित,दिवाकर सकलानी,सुभाष नौटियाल,कमल बिष्ट,टी.एस असवाल,मंजू पाल,डॉ.सरस्वती सिंह,राकेश रावत,जगजीत सिंह रावत,अरुण थपलियाल काली, सुधांशु बिजलवाण, रोहन सिंह आदि उपस्थित रहे।