शिव पौराणिक काल से ही नेपाल से लेकर भारत में सुदूर केरल तक सम्पूर्ण भारत के आराध्य देव माने जाते रहे हैं। प्राचीन काल से ही वे इतनी अगाध आस्था, श्रद्धा के प्रतीक रहे हैं कि उन्हें देवों के देव, महादेव के नाम से भी पुकारा गया। यही कारण है कि उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक कहीं न कहीं मंदिरों में शिव तथा नन्दी की प्रतिमांए भव्य रूप में नजर आती हैं। ऐलीफैन्टाकेव में प्राचीन स्थापित शिवलिंग हो या शिव की प्रतिमा उत्तराखण्ड में केदारधाम, मदमहेश्वर, तुंगनाथ, लाखामण्डल,या मध्य प्रदेश में खजुराहो के मन्दिरों के शिवलिंग हों, हिमाचल प्रदेश में चामुण्डा देवी के मंदिर में स्थापित शिवलिंग, नन्दी की प्रतिमा हो, या बैजनाथ के भव्य मन्दिर में स्थापित शिवलिंग हो या नन्दी की प्रतिमा हो, या गुजरात में सोमनाथ में स्थापित शिवलिंग हो, शिव अपनी भव्यता तथा पौराणिक कथाओं के साथ पूरे भारत में नजर आते हैं।
उत्तराखण्ड के सतोपथ शिखर जहां से युधिष्ठिर ने स्वर्ग गमन किया था वहां से लेकर सम्पूर्ण उत्तराखण्ड का महाभारत काल से गहरा सम्बन्ध रहा है। उत्तराखण्ड में जौनसार का लाखामण्डल क्षेत्र पाण्डवों के अज्ञातवास का साक्षी रहा है। डाकपत्थर से 80 किलोमीटर दूर उत्तरकाशी मार्ग पर यमुना नदी को पारकर चार किलोमीटर दूर ऊपर लाखामण्डल गांव में पहुंचा जाता है। यहीं पर दुर्योधन ने पाण्डवों को जलाने के लिए लाक्ष्याग्रह का निर्माण कराया था। इसी कारण आदि केदार क्षेत्र का यह गांव लाखामण्डल नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस क्षेत्र में उत्खनन के दौरान महाभारत काल की अनेक वस्तुएं पुरातत्ववेताओं को प्राप्त हुई। प्राचीन लाक्ष्याग्रह के स्थान पर बने प्राचीन मन्दिर के स्थान पर बना है वर्तमान मन्दिर जो शिव को समर्पित है। मन्दिर के समीप ही दो विशाल शिवलिंग हैं। जिनमें से एक विशाल ऊंचे चैकोर चबूतरे के ठीक मध्य में स्थापित है तो दूसरा थोड़ी दूर मन्दिर में स्थापित है। इस शिवलिंग पर जब पानी चढ़ाया जाता है तो शिवलिंग में बहते पानी पर अपना प्रतिबिम्ब आसानी से देखा जा सकता है। इनमें से एक शिवलिंग को केदार शिवलिंग तथा दूसरे को युधिष्ठिर शिवलिंग कहा जाता है।
पैराणिक कथा है कि महाराजा पाण्डू के गुप्तवाश के समय लाखामण्डल में विचरण करते समय चलाये गये तीर से एक हिरण की मृत्यु हो गयी थी। हिरण के श्राप के कारण कुछ दिन बाद ही महाराजा पाण्डू मृत्यु को प्राप्त हो गये थे। उस स्थान पर पाण्डव पुत्रों तथा विदुर ने शिव मन्दिर का निर्माण कराया था। तब लाखामण्डल क्षेत्र हस्तिनापुर राज्य के अधीन था। उस समय नाग जाति का प्रभुत्व सारे उत्तराखण्ड पर था। इस जाति का प्रभाव तत्कालीन मन्दिरों के शिल्प पर पड़ा। जिससे नाग शिखर शैली के मन्दिर केवल उत्तराखण्ड में ही नहीं सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्रों में दिखाई पड़ते हैं। कहते हैं कि लाखामण्डल का शिव मन्दिर, छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास बना था। मन्दिर के पीछे दो विशाल खूबसूरत आदमकद प्रतिमाएं हैं जिन्हें जय विजय की प्रतिमाएं कहा जाता है। मन्दिर के प्रांगण में महाभारत कालीन संस्कृति और परम्पराओं के दर्शन आज भी होते हैं। यद्यपि समय के साथ व्यापक परिवर्तन हो रहा है, पर सुबह शाम प्राचीन वाद्य यन्त्रों, रणसिंघा, ढोल के साथ आज भी मन्दिर में पूजा अर्चना होती है।
मान्यता है कि मुख्य मन्दिर, प्राचीन मन्दिर के स्थान पर बना है। जो राजा चन्द्रगुप्त की पत्नी ऐश्वर्या ने,विवाह के दिन ही अपने पति की दुर्घटना में आकस्मिक मत्यु पर उनकी आत्मा की शुद्धि के लिए तथा उनकी स्मृति में बनवाया था ठीक उस स्थान पर जहां दुर्योधन ने लाक्ष्याग्रह बनवाया था। उत्खनन के दौरान समय-समय पर प्राप्त अभिलेखों, शिलालेखों से पुरातत्वेताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह मन्दर आठवीं शताब्दी में बना है। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार यहां यादव वंश की राजकुमारी ईश्वरा ने इस क्षेत्र पर कई वर्षो तक राज्य किया था। उसने अपने पति की स्मृति में मंदिर का निर्माण कराया था। ईश्वरा के प्रशस्ति शिलालेख को अयोध्या के वसुदेव भटट द्वारा लिखा गया तथा रोहतक के ईश्वर नाज द्वारा उत्कीर्ण किया गया था।
मन्दिर परिसर में स्थापित शिवलिगों की सुन्दरता देखते ही बनती है
मन्दिर परिसर में स्थापित शिवलिगों की सुन्दरता देखते ही बनती है। मन्दिर के गर्भ ग्रह में तथा बाहरी दीवारों पर गंगा, यमुना, महिषासुर, मंदिनी, कुबेर आदि अनेक देवी-देवताओं की आकर्षक मूर्तियां हैं। सुदंर तोरण, अलंकरण में कार्तिकेय, गणेश, कुबेर की मूर्तियां हैं। अनेक मूर्तियां समय-समय पर उत्खन्न के दौरान प्राप्त हुई। जिन पर मृदुकालीन शिल्पकला की छाप दिखाई पड़ती है। यहां प्राचीन वस्तुओं का संग्रहालय है, जिसमें उत्खन्न के दौरान प्राप्त मूर्तियां, शिलापट आदि सामान रखा गया है। जो उस काल को अभिव्यक्ति देता है।
लाखामण्डल मन्दिर परिसर में अब तक निम्न प्रशस्ति शिलालेख प्राप्त हुये हैः-राजा छागलेश (अजेश्वर), गुप्तकालीन अभिलेख (शंखलिपि में), गुप्तकालीन अभिलेख (ब्राहमीलिपि में) राजकुमारी ईश्वरा का प्रशस्ति लेख तथा नागरी लिपि में अभिलेख। ईश्वरा के प्रशस्ति लेख से पता चलता है कि यदुवंश के नरेश सैंहपुर अर्थात कालसी हरिपुर के क्षेत्र में राज्य करते थे। ईश्वरा के प्रशस्ति लेख में सैंहपुर के बारह नरेश जो बताये गये हैं उनके नाम हैं- सेनवम्र्मन,आर्यवर्मन,देववर्मन,प्रदीप्त वर्मन,ईश्वर वर्मन, बुद्धि वर्मन,सिंह वर्मन,जल वर्मन,यज्ञवर्मन,अचल वर्मन,दिवाकर वर्मन, और भास्कर वर्मन,जिनकी पुत्री थी ईश्वरा।
लाखामण्डल में प्राप्त उमा महेश्वर का मूर्तिपैनल,गणेश, कार्तिकेय शिवगणों की मूर्तियां मूर्ति कला का उत्कृष्ठ उदाहरण है। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार कुछ मूर्तियां पांचवी शताब्दी की हैं। माना जाता है कि पूर्व धवस्त मन्दिरों का मुंह उत्तर की ओर रहा होगा। क्योंकि हजारों वर्षो से खड़ी जय विजय की मूर्तियों (द्वारपाल) का मुंह तथा मन्दिर का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर होना चाहिये था। पर वर्तमान में जय विजय प्रतिमाओं का मुंह उत्तर की ओर तथा मन्दिर का प्रवेश द्वार दक्षिण की ओर है, ठीक एक दूसरे के विपरीत। दोनों मूर्तियां कभी एक हाथ में गदा उठाये हुये थीं। दोनों के सिर पर खूबसूरत मुकुट, गले में हार, व कर्घनी में बंधे गुप्तांग के वस्त्र उत्कीर्ण हैं। चेहरे पर ओज, शौर्य, साहस टपकता दिखाई पड़ता है। मूर्तियां शिल्प तथा कला की दृष्टि से पांचवी शती की मानी जा सकती हैं। मुख्य मन्दिर के पास की पहाड़ी पर दूर से ही विशाल गुफाएं दिखाई पड़ती हैं। जिनमें पाण्डवों ने अज्ञातवाश के दौरान शरण ली थी तथा मुख्य मन्दिर के ठीक 500 मीटर नीचे है, उडयार गुफा। जिसका दूसरा सिरा प्राचीन चाकरी अर्थात आज के चकराता नामक स्थान पर खुलता था। इसी गुफा से पाण्डवों ने भाग कर अपनी जान बचायी थी।