लेखक ललित मोहन रयाल की पुस्तक ‘कारी तू कभी ना हारी’ पर बेबीनार का आयोजन

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लेखक ललित मोहन रयाल द्वारा रचित पुस्तक ‘कारी तू कभी ना हारी’ पर वेबीनार के माध्यम से एक परिचर्चा व संवाद गोष्ठी का आयोजन किया गया। आयोजन में साहित्यकारों ने पुस्तक की समीक्षा की एवं अपने विचार साझा किए।

प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही ने कहा कि ललित मोहन रयाल की इस कृति में भाषा का एक अपना तेवर है। इसमें भाषा को मूल रूप में यथारूप प्रस्तुत किया गया है। हिंदी के साथ गढ़वाली बोली अपनी मूल प्रकृति में आई है। यह खांटी देसीपन चौंकाता है। सृजन की दिशा में उनका यह बोल्ड स्टेप ही कहा जाएगा। दरअसल उस लोक को संपूर्णता में जानना है तो उस युग के माध्यम से ही जाना जा सकता है। पुस्तक की जो भाषा है, वह उसी युग की भाषा है।

अमित श्रीवास्तव ने कहा कि अपनी विशिष्ट शैली के कारण इस पुस्तक की प्रासंगिकता बनी रहेगी। जीवनी को लक्षित कर लिखी गई यह रचना अपनी रागात्मकता के कारण औपन्यासिक कृति सी लगने लगती है।

प्रमोद शाह ने कहा कि ललित मोहन रयाल द्वारा लिखित यह पुस्तक तीन पीढ़ियों के इतिहास का एक वृत्तचित्र प्रस्तुत करती है। लेखक ने बड़े ही सधे हुए अंदाज में अपने पिता की जीवनी के बहाने उस समय के नैतिक मूल्य,समाज व संघर्षों को लिखा है। रचना में नीति, इतिहास और दर्शन का सुंदर सम्मिश्रण मिलता है।

पुस्तक के लेखक ललित मोहन रयाल ने कहा कि पिता के दिवंगत होने के बाद वे पितृ-कर्म में रहे। वह अवधि आइसोलेशन की होती है। पुस्तक उसी दौर की उपज है। उस समय आप एक खास मनोदशा में होते हैं। जिस व्यक्ति को आप खोते हैं, उसका पूरा जीवन-संसार स्मृति-चित्र की तरह आपके जेहन में कौंधता रहता है।

गंभीर सिंह पालनी ने कहा कि पुस्तक का खास पहलू यह है कि यह किस्सागोई से सराबोर है। वही डॉ सविता मोहन ने कहा दरअसल ये पहाड़ की कथा है। लेखक ने पिता के बहाने उस समय में झांकने का प्रयास किया है और जो विचार उपजे हैं, उन्हें शब्दचित्र के जरिए प्रस्तुत कर दिया है।

प्रबोध उनियाल ने कहा कि यह पुस्तक पिता के बहाने तीन पीढ़ियों के सामाजिक, नैतिक- सांस्कृतिक मूल्यों को बखूबी बयां करती है। परिचर्चा में शंखधर दुबे,डॉ नवीन लोहनी,देवेश जोशी,मुकेश नौटियाल,डॉ.प्रियंका अंथवाल,रेखा नेगी,रत्ना मैठानी, नंदकिशोर हटवाल,अशोक अवस्थी,विपिन सकलानी,सुनीता रयाल,उषा रतूड़ी भट्ट,नीलम शर्मा,प्रदीप अंथवाल,जगमोहन कठैत आदि ने भी उपस्थित होकर अपने विचार साझा किए। परिचर्चा का संचालन कथाकार मुकेश नौटियाल ने किया।