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वृक्षों को लगाने और उनके पोषण को लेकर भावनात्मक लगाव पैदा करने और इसे परम्परा बनाने का प्रयास है मैती आन्दोलन और इसके प्रणेता हैं कल्याण सिंह रावत ‘मैती’। इस आन्दोलन के मूल में यही प्रयास है कि पर्यावरण की रक्षा का विचार, वृक्षारोपण और उसका पालन-पोषण इंसान की कोमल भावनाओं से जुड़ जाय। मैती आन्दोलन यह भाव जगाने और महसूस कराने की कोशिश है कि वृक्ष भी शिशु की तरह होते हैं। शिशु को जन्म देना ही पर्याप्त नहीं, उसके लालन-पालन-पोषण प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी का कार्य है। जब तक बच्चा अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता तब तक उसे निरन्तर देखभाल की जरूरत पड़ती है। तभी वो घर-परिवार-समाज और राष्ट्र को कुछ देने की स्थिति में पहुंचता है। इसी प्रकार वृक्ष भी हैं। रोपण के बाद उन्हें भी पर्याप्त देखभाल की जरूरत होती है।
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इसके लिए कल्याण सिंह रावत ने चुना विवाह के अवसर पर नवदम्पति द्वारा वृक्षारोपण का कार्य। विवाह इंसानी जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। भारत, उत्तराखण्ड और बेटियों के संदर्भ में इसकी भावनात्मकता और संवेदनशीलता बढ़ जाती है। विवाह के रीति-रिवाज, रश्में और परम्पराएं, इन सब का निर्वहन हम बिना किसी नफा-नुकसान का विचार किये शदियों से करते चले जा रहे हैं। ये सब हमारी परम्परा का अभिन्न हिस्सा बन गया। विवाह के रस्मों के बीच नवदम्पत्ति द्वारा वृक्षारोपण को एक रश्म, रिवाज और परम्परा बनाने की कोशिश है मैती आन्दोलन।
मैती का अर्थ
मैत का अर्थ है मायका। लड़की जहां पैदा होती है वो गांव-कस्बा मैत होता। गांव के पेड़, पहाड़, नदियां, खेत, जीव, जन्तु, पश,ु पक्षी, सब मैती कहलाते हैं। जैसे मैती मुल्क, मैती डांडा, मैती आदमी। उत्तराखण्ड में मैती शब्द बहुत भावनात्मक है। इसमें प्यार और अपनापन घुला होता है। यही मैती आन्दोलन की आत्मा है।
मैती आंदोलन की कार्यप्रक्रिया
सबसे पहले गांव-कस्बे में मैती ग्राम गंगा समिति का गठन किया जाता है। इस कार्य में गांव या कस्बे के पूर्व में गठित अन्य महिला संगठन, युवा संगठन भी सहयोग करते हैं। इस समिति के गठन से लेकर संचालन की प्रमुख जिम्मेदारी महिजाएं संभालती हैं। निकटवर्ती बैंक या डाकघर में मैती ग्राम गंगा समिति का खाता खोला जाता है। जिसका संचालन समिति की अध्यक्ष तथा कोषाध्यक्ष के द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है।
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मैती आन्दोलन की प्रमुख गतिविधि है विवाह के अवसर पर नवदंपति द्वारा किया जाने वाला वृक्षारोपण। विवाह की दूसरी रस्मों की तरह यह कार्य भी महत्वपूर्ण रस्मों की तरह ही सम्पन्न किया जाता है। निमंत्रण कार्डों पर भी मैती वृक्षारोपण कार्यक्रम की तिथि तथा समय अंकित किया जाने लगा है।
वृक्षारोपण हेतु ‘मैती ग्राम गंगा समिति’ के पदाधिकारी पास की किसी नर्सरी से एक अच्छी प्रजाति के फलदार पौधे की व्यवस्था करते हैं। निर्धारित दिन और समय पर नवदंपति से उसकी शादी की यादगार में उनके घर के आसपास जहां भी जमीन उपलब्ध हो, वृक्षारोपण का कार्य संपन्न कराया जाता है। इसमें गांव-कस्बे की समस्त बेटियां-महिलाएं प्रतिभाग करती हैं। इस अवसर पर दूल्हा पक्ष लगाए गए पौधे की सुरक्षा एवं देखभाल के लिए कुछ धनराशि ‘मैती ग्राम गंगा समिति’ को देता है। इस राशि को समिति अपने खाते में जमा कर देती है।
इस प्रकार गांव में जैसे-जैसे बेटियों की शादी होती जाती है गांव की भूमि पर बेटियों के विवाहों के यादगार वृक्षों की संख्या बढ़ती जाती है। समिति के कोश में भी इजाफा होता है। समिति इस कोश का उपयोग यादगार पौधों की देखभाल और सुरक्षा में करती है। ग्राम स्तरीय अन्य समितियां देख-रेख में सहयोग देती हैं। लेकिन सबसे बड़ा योगदान होता है उस बेटी के परिजनों और उसकी मां का जिसके विवाह की यादगार के रूप में वह पेड़ लगाया गया है। मां की ममता पेड़ पर आंच नहीं आने देती। बेटी जब भी मायके आती है उस पेड़ को बढ़ता फलता-फूलता देख कर खुश होती है। यही मानवीय भावना मैती आन्दोलन की खुराक है। ‘मैती ग्राम गंगा समिति’ को प्राप्त धनराशि का उपयोग गरीब बेटियों की सहायता, स्वास्थ्य, स्वच्छता तथा शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में भी किया जाता है।
ससुराल में भी लगता हैं पेड़
दुल्हन ससुराल पहुंचती है तो वहां मंगरे (प्राकृतिक जल स्रोत) पूजन की रस्म अदायगी होती है। उसके बाद ‘मैती ग्राम गंगा समिति’ की बेटियां दुल्हन को पेड़ उपहार में देती है और दुल्हन द्वारा रस्मों की तरह ही वृक्षारोपण की रस्म का निर्वहन भी किया जाता है। ससुराल में भी इस वृक्ष की देखभाल व सुरक्षा का दायित्व नवदंपति के परिजन और मां निभाती है। भला एक मां अपने बेटे के विवाह की यादगार को कैसे आंच आने देगी।
प्रवासी भी लगाते हैं यादगार वृक्ष
शहरों और विदेशों में रहने वाले प्रवासी भी अपने बच्चों की शादियों में पेड़ लगाने की परंपरा का निर्वाह करते हैं। वे अपने पैतृक गांव में गठित ‘ग्राम गंगा समिति’ के नाम धनराशि भेजते हैं। समिति नव दम्पति के नाम पर उनकी जमीन पर एक यादगार वृक्ष लगाती और उसकी देखभाल करती है। इसकी सूचना एवं फोटो वे संबंधित को भेज देते हैं।
गलत परम्पराओं का विरोध भी
गलत परंपराओं के स्थान पर नयी अच्छी परम्पराएं शुरू करने का आन्दोलन भी है मैती। मैती से जुडे़ लोग शादियों में जूता छुपाकर दूल्हे से पैसे लेने की सौदेबाजी और मुख्य प्रवेश द्वार पर रिबन काट कर स्वागत करने जैसी परम्पराओं को बंद करने को भी प्रेरित करते हैं। साथ ही सगाई को संक्षिप्त करने, दहेज का विरोध, भोजों पर अनाज की बर्बादी रोकने हेतु जागरूक करना भी इस आन्दोलन का हिस्सा है।
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जाने मैती आन्दोलन के जनक कल्याण सिंह रावत को
कल्याण सिंह रावत का जन्म 19 अक्टूबर 1953 को जनपद चमोली के कर्णप्रयाग विकासखण्ड के तल्ला चानपुर पट्टी के बैनोली गांव में हुआ। इनकी मां का नाम श्रीमती विमला देवी और पिता का नाम त्रिलोक सिंह रावत है। पिता वन विभाग में रेंजर के पद पर कार्यरत थे। सेवानिवृत्ति के बाद वे राजनीति और सामाजिक कार्यों में जुड़ गये तथा कर्णप्रयाग के ब्लाक प्रमुख बने। इसलिए कल्याण सिंह रावत को पेड़ों और जंगलों के प्रति लगाव और सामाजिक सेवा विरासत में मिली। इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के प्राथमिक स्कूल बैनोली (नौटी) में हुई। 8 वीं तक की शिक्षा कल्जीखाल तथा हाईस्कूल और इण्टर की शिक्षा कर्णप्रयाग से प्राप्त की। आगे स्नातक और स्नाक्तोतर शिक्षा राजकीय स्नाक्तोतर महाविद्यालय गोपेश्वर से प्राप्त की।
छात्र जीवन में ही कल्याण रावत गांधीवादी संगठनों के संपर्क में आ गए थे। प्रकृति के करीब रहने में उनकी दिलचस्पी रही। कल्याण सिंह रावत ने पूरे हिमालय का दौरा किया और गढ़वाल-कुमाऊं के कई स्थानो का भ्रमण किया। इससे उन्हें वहां के जन-जीवन और महिलाओं की परिस्थितियों को समझने का मौका मिला।
कॉलेज के दिनों से ही कल्याण सिंह रावत पर्यावरण से जुड़े कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते। गोपेश्वर में ग्रजुवेशन की पढ़ाई के दौरान वे चिपको आन्दोलन से भी जुड़े। चण्डीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में सीमांत जनपद चमोली में विश्वप्रसिद्ध चिपको आन्दोलन चल रहा था तो कल्याण सिंह रावत भी छात्र आन्दोलनकारी के रूप में इसमें शामिल हुए। चिपको की सफलता से कल्याण रावत के मन में पर्यावरण के प्रति और अधिक चेतना और लगाव पैदा हुआ। उनकी समझ बनी और आगे चलकर निरन्तर इसका विकास होता चला गया।
मैती का कैसे आया विचार मन में
1982 में कल्याण सिंह रावत की शादी हुई। शादी के दूसरे ही दिन पत्नी मंजू रावत द्वारा दो पपीते के पेड़ लगाये गये। जिसने कुछ साल बाद फल देने शुरू कर दिये थे। इन पपीते के पेड़ों के प्रति अपनी पत्नी के भावनात्मक लगावा को देखकर उनके मन में मैती का विचार आया। लेकिन उस समय वे इसे धरातल पर नहीं उतार पाये थे। 1987 में उत्तरकाशी में सूखा पड़ा तो कल्याण रावत ने ग्रामस्तर पर ग्राम प्रधान की अध्यक्षता वाली ‘वृक्ष अभिषेक समिति’ का गठन किया। समिति के सहयोग से ‘वृक्ष अभिषेक समारोह’ मेले का आयोजन किया गया। इससे इनके मन में ग्राम समितियों की उपादेयता और कार्यपद्धति को निकट से जानने और महसूस करने का मौका मिला।
जल, जंगल और जमीन के संरक्षण की विभिन्न गतिविधियों से जुड़े रहने के दौरान कल्याण सिंह रावत लगातार वृक्षारोपण और पर्यावरण संरक्षण की दूसरी गतिविधियों के परिणामों से असंतुष्ट रहने लगे। सरकारी वृक्षारोपण अभियान की विफलताएं उन्हें बेचैन कर देती। एक ही जगह पर कई बार पेड़ लगाए जाते पर उसका नतीजा शून्य होता। पौधे तो लाखों लगते हैं लेकिन पेड़ कितने बन पाते? ये सवाल उनके सामने खड़ा रहता। वृक्षारोपण के कार्यक्रम तो होते लेकिन उसके बाद उन वृक्षों के संरक्षण की कोई व्यवस्था न होने से वे खत्म हो जाते। वृक्षारोपणों की जमीनी हकीकत से वे इस नतीजे पर पहुंचे कि वृक्षारोपण के साथ-साथ उसकी देखभाल और सुरक्षा भी जरूरी है। इन्हीं सब परिस्थितियों में मैती का विचार पनपने लगा। वे महसूस करने लगे कि जल, जमीन और जंगल से सीधे तौर पर जुड़े लोगों के अन्दर वृक्षारोपण और उसकी सुरक्षा को लेकर भावनात्मक लगाव जरूरी है।
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इन्हीं सब बातों ने कल्याण सिंह रावत के अन्दर एक पुख्ता विचार और कार्ययोजना को जन्म दिया। 1995 में पहली बार कल्याण रावत ने अपने इन विचारों को अमली जामा पहनाने के लिए गढ़वाल-कुमाऊं के कुछ गांवों में मैती संगठन की नींव रखी। उस समय वे रा.इ.का.ग्वाल्दम में जीव विज्ञान प्रवक्ता के पद पर कार्यरत् थे। मैती संगठन की गतिविधियों को लोकप्रियता मिलने लगी। जल्दी ही यह विचार गढ़वाल-कुमाऊं के कई गांवों और देश-दुनिया के दूसरे हिस्सों में फैलने लगा।
इन हस्तियों ने सराहा है मैती आन्दोलन को
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी,मदन मोहन मालवीय की पौत्री श्रीमती आशा सेठ, उत्तर प्रदेश की तत्कालीन वित्त मंत्री सैयद अली की पुत्री हमीदा बेगम, उत्तराखंड की राज्यपाल श्रीमती मार्ग्रेट अल्वा, कनाडा की तत्कालीन वित्त मंत्री तथा कुछ समय तक प्रधानमंत्री रह चुकी श्रीमती फ्लोरा डोनाल्ड, कनाडा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर माया चड्डा मैती आन्दोलन की सराहना कर चुके हैं। राजस्थान, गुजरात तथा हिमाचल प्रदेश की सरकारों ने भी अपने राज्य में यह मुहिम शुरू की है। इंडोनेशिया सरकार ने तो कानून ही बना दिया है कि शादी से पहले नव दंपति का एक पेड़ लगाना आवश्यक होगा।
डॉक्टर नंद किशोर हटवाल जी की फेसबुक वॉल से साभार