भारत छोड़ो आंदोलन जिसमें बेनकाब हुए लीग,हिन्दुवादी और कम्युनिस्ट!

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3 सितंबर 1939 को ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने का ऐलान किया , उसके ठीक अगले दिन भारत के गवर्नर लिनलिथगो ने भारत के जनप्रतिनिधियों की सहमति के बगैर भारत को भी युद्ध में झोंक दिया। इस मनमाने फैसले के विरुद्ध पूरे भारत में काफी तीखी राजनीतिक प्रतिक्रिया शुरू हुई, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मत था , जब देश अकाल से जूझ रहा है तब भारत का युद्ध में शामिल होने का कोई कारण नहीं बनता,युद्ध में शामिल फैसले के विरोध में कांग्रेस की आठ प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दे दिया।

महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश और भारतीय सेनाओं में भारतीयों के भर्ती होने के विरुद्ध जागरूकता अभियान चलाया।

भारत की इन राजनीतिक परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिए , भारत के आजादी के प्रस्ताव और प्रारूप को तैयार करने के लिए ब्रिटेन में युद्ध के प्रधानमंत्री चर्चिल ने 1942 के प्रारंभ में लेबर पार्टी के सर स्टोफर क्रिप्स को भारतीय नेताओं से मुलाकात और आजादी की भविष्य की संभावनाओं को तलाशने के लिए भारत भेजा। किसने भारतीय नेताओं से बातचीत के बाद जो भविष्य की रूपरेखा तय की उसे क्रिप्स मिशन के रूप में जाना जाता है।

क्रिप्स ने भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ और राष्ट्रमंडल में अलग होने के लिए आत्म निर्णय का अधिकार तो दिया, लेकिन वह भारत को सीधे सत्ता हस्तांतरण के सवाल पर बचते रहे, उनहोने भारत को एक ब्रिटिश डोमिनियन स्टेट प्रदान करने की बात कही, संविधान बनाने के लिए संविधान सभा के सवाल पर भी कोई स्पष्ट बात क्रिप्स नहीं कह सकें,इस कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने क्रिप्स के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

भारत को उसके नागरिकों की मर्जी के विरुद्ध युद्ध में धकेलने तथा सीधे आजादी पाने के लिए 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने अगस्त क्रांति मैदान मुंबई से भारत छोड़ो आंदोलन का श्री गणेश ” करो या मरो ” का नारा देशवासियों को देकर किया ,जिसका पूरे भारत में व्यापक असर हुआ भारत की पूरी जवानी और पूरा देश सैलाब बनकर सड़कों पर उमड़ आया .. अंग्रेजों ने भी इस आंदोलन से निपटने की व्यापक तैयारियां की पूरा देश छावनी में बदल गया 8 अगस्त की रात आते -आते महात्मा गांधी पंडित जवाहरलाल नेहरू, गोविंद बल्लभ पंत , सरदार पटेल, डॉ राजेंद्र प्रसाद, जाकिर हुसैन, आदि देश के न केवल पहली पंक्ति के कांग्रेस के नेता बल्कि जनपद व पंचायत स्तर के भी अधिकांश ज्ञात कांग्रेसी नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया गया ,इस प्रकार पूरा देश नेतृत्व विहीन हो गया।

गांधी के मंत्र करो या मरो को साधते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध पूरा भारत वर्ष सड़कों पर उतर आया इस आंदोलन की व्यापकता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि आंदोलन में, 940 लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी 1630 लोग घायल हुए, पूरे भारतवर्ष में 60229 लोगों की गिरफ्तारियां हुई।

आंदोलन नेतृत्व विहीन होने के कारण अहिंसक नहीं रह सका, पूरे आंदोलन में देशभर में व्यापक हिंसा हुई 208 थाने 1275 सरकारी कार्यालय, 382 रेलवे स्टेशन 945 डाकघर लूटने के साथ ही सैकड़ों किलोमीटर रेल ट्रैक भी उखाड़ दिया गया।

देशभर में हो रही गिरफ्तारियों के बीच कांग्रेस के भीतर मौजूद समाजवादी नेतृत्व जिसमें जयप्रकाश नारायण, अरूणा आसफ अली , उत्तराखंड के मदन मोहन उपाध्याय ,अच्युत पटवर्धन , राम मनोहर लोहिया आदि नेता महत्वपूर्ण थे ,जिन्होंने स्वयं को भूमिगत कर काफी हद तक 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया..।

महात्मा गांधी आंदोलन में पहले ही हर व्यक्ति को स्वयं का नेता कह कर प्रयोगों के लिए आजाद कर चुके थे ,तब बाबूभाई खाखड़, विट्ठलदास झवेरी, ऊषा मेहता और नरीमन ने मुंबई,भारत में प्रतिबंधित रेडियो स्टेशन “वॉइस ऑफ फ्रीडम” की स्थापना कर आजादी के आंदोलन को नया मुकाम दिया।  लेकिन देश में जब लाखों लाख भारतीय देश को आजाद करने के सपने के साथ अपनी कुर्बानिया दे रहे थे ।तब उस वक्त भारत की राजनीति में सक्रिय मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसे दल कांग्रेस को हाशिए पर धकेलने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। अंग्रेजों के समर्थन करने के उनके अपने-अपने तर्क थे।

कम्युनिस्ट उस वक्त प्रतिबंधित थे और प्रतिबंध हटाने के एवज में तथा सोवियत संघ के समर्थन और जर्मनी के विरुद्ध ब्रिटेन के युद्ध में शामिल होने के कारण कम्युनिस्ट ब्रितानी हुकूमत का समर्थन कर रहे थे,बदले में उन्हें तत्काल प्रतिबंध से मुक्ति मिली।

मोहम्मद अली जिन्ना इस अवसर को अपने द्विराष्ट्र के सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए करना चाह रहे थे, इसके लिए वह अंग्रेजों के साथ खड़े हो गए और कहा कि अंतरराष्ट्रीय युद्ध के समय ब्रिटेन को किसी कीमत पर कांग्रेस के दबाव और ब्लैक मेलिंग में नहीं आना चाहिए. इसके लिए मुस्लिम लीग ने हिंदू महासभा और संघ के साथ हाथ मिलाकर भारत में लोकप्रिय सरकारों की स्थापना में सहयोग किया…। परिणाम स्वरूप भारत छोड़ो आंदोलन और विश्व युद्ध के दौरान नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर तथा बंगाल में मुस्लिम लीग और हिंदूवादी संगठनों की मिली जुली सरकार एक वर्ष से अधिक समय तक रही, बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी महत्वपूर्ण वित्त मंत्री के साथ उपमुख्यमंत्री की हैसियत से रहे।

इस रणनीति का खुलासा करते हुए सावरकर ने 1942 में हिंदू महासभा के कानपुर अधिवेशन में सावरकर ने अध्यक्षीय भाषण में पैरवी इन लफ्जों में की थी।

“व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गए। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक के प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल और मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध की रणनीति बनाते हुए कहते हैं। “बंगाल में इस भारत छोड़ो आंदोलन से कैसे निबटा जाए? प्रांत का प्रशासन इस तरह से चलाया जाना चाहिए कि कांग्रेस द्वारा हर संभव कोशिश करने के बाद भी, यह आंदोलन प्रांत में जड़ पकड़ने में असफल रहे। हम लोगों, विशेषकर ज़िम्मेदार मंत्रियों को चाहिए कि जनता को यह समझाएं कि कांग्रेस ने जिस स्वतंत्रता को हासिल करने के लिय यह आंदोलन शुरू किया है, वह स्वतंत्रता जनप्रतिनिधियों को पहले ही हासिल है।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मंत्री, बंगाल सरकार, 26 जुलाई, 1942,राजनीतिक कारणों से हिंदू महासभा मुस्लिम लीग, संघ, कम्युनिस्ट पार्टी की जो भी रणनीति रही हो, लेकिन इन सभी दलों के कार्यकर्ताओं ने बड़ी संख्या में जमीन पर भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया. तभी यह व्यापक आंदोलन सफल हुआ, देश आजादी की तरफ मजबूती से बडा। देश के उन महान स्वतंत्रता सेनानियों को भारत छोड़ो आंदोलन की 79 वर्षगांठ पर भाव पूर्ण नमन व श्रद्धांजलि।

आलेखः- प्रमोद शाह

फोटो- गूगल बाबा