उत्तराखंड में बैकडोर कैडर पर विराम जरूरी

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दिनेश शास्त्री

भरोसा जब टूटता है तो सपने और उम्मीदें भी टूट जाती हैं तथा किसी भी जीवंत समाज के लिए यह स्थिति सर्वाधिक भयावह होती है। उत्तराखंड राज्य की स्थापना के लिए यहां के लोगों ने जो कीमत चुकाई, वह किसी और समाज ने अदा नहीं की,यही इस समाज की जीवंतता थी लेकिन राज्य स्थापना के बाद से जो कुछ हो रहा है,वह भरोसा टूटने से अधिक कुछ नहीं है।

सच मानिए जिस समाज का भरोसा टूटता है, उसकी प्रतिक्रिया बेहद घातक होती है। घातक इस संदर्भ में भी कि जो लोग हाकम जैसे लोगों को गोद में बिठाते हैं, या फिर अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में संस्था की जरूरत बता कर बैकडोर से अपनों की भर्ती करते हैं, उनसे हिसाब बराबर करने की जिद उपजती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि ठंडे प्रदेश होने के कारण पहाड़ी का खून देर से खौलता है, लेकिन जब खौलता है तो बड़े बड़े मठाधीशों की चूलें हिला देता है।

अधीनस्थ सेवा चयन आयोग हो विधानसभा में भर्ती का मामला। उत्तराखंड में योग्य कार्मिकों के साथ एक और संवर्ग का निर्माण हुआ है और उस संवर्ग का नाम है बैकडोर संवर्ग। दुर्भाग्य से इस संवर्ग के कार्मिकों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। राज्य के हित में यह संवर्ग कितना योगदान दे रहा होगा, आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं।

उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग की अंतहीन कलंक कथा प्याज के छिलकों की तरह रोज नए खुलासे दे रही है। वीडीओ,वीपीडीओ के घपले के खुलासे के बाद एक के बाद परतें खुली तो रोज नए चौंकाने वाले मामले सामने आ रहे हैं। इससे पहले वन आरक्षी,वन दरोगा,सचिवालय सुरक्षा संवर्ग आदि के मामले सामने आए ही थे कि उत्तराखंड लोक सेवा आयोग भी धांधली की आंच में हाथ झुलसा बैठा। प्रवक्ता चयन के मामले के साथ ही तमाम परीक्षाएं अब संदिग्ध हो गई हैं। अधीनस्थ सेवा चयन आयोग से पहले जब तकनीकी शिक्षा परिषद अथवा पंतनगर विश्वविद्यालय ने जो परीक्षाएं करवाई वो भी कहां शुचिता पूर्ण रही? वैसे राज्य स्थापना के बाद शुरू में हुई पटवारी भर्ती परीक्षा से ही उत्तराखंड की नींव में भ्रष्टाचार का घुन दिख गया था लेकिन तब भी एक अदद डीएम को सजा देने के अलावा हुआ क्या? पुलिस भर्ती में भी लोग बाइज्जत रिटायर हो गए,किसी का कुछ बाल बांका हुआ हो तो बता दें।

मुझे तो याद नहीं आता कि नौजवानों का भरोसा बनाए रखने के लिए तब से अब तक की सरकारों ने जुमलाफरोसी के अलावा कुछ किया हो, अगर आप को ऐसी कोई नजीर दिखती हो तो मुझे भी बता दीजिए, ताकि मैं भी खुद को करेक्ट कर सकूं।

हाल में अधीनस्थ सेवा चयन आयोग ने कितने नौजवानों के सपनों पर पानी फेरा,कितनी माताओं की उम्मीदों पर तुषारापात किया,सब सामने आ गया है। जीरो टॉलरेंस के जुमले को सुनते सुनते बावर्ची से अरबपति और ऑटो चालक से धन्नासेठ बनते लोग आपने उत्तराखंड में ही देखे होंगे,वह भी तब जब नौजवानों को अच्छे दिनों के सपने खूब दिखाए गए।

सारी कलंक कथा सामने आने के बाद भी नौजवानों को भरोसा दिया जा रहा है कि उत्तराखण्ड में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के लिए कोई जगह नहीं है। UKSSSC भर्ती प्रक्रिया में जिस भी व्यक्ति की अनुचित संलिप्तता पाई जा रही है, उन पर कठोर से कठोर कार्रवाई की जाएगी। आरोपियों की संपत्तियां ज़ब्त करने और उन पर रासुका तथा गैंगस्टर एक्ट की धाराओं के तहत भी कार्रवाई की बात की जा रही है लेकिन कार्रवाई हुई नहीं। अलबत्ता रोजाना दोहराया तो यही जा रहा है कि प्रदेश के युवाओं के साथ खिलवाड़ करने वाले क़ानून से बच नहीं पाएंगे लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। गर्जन तर्जन तो सुना जा रहा है किंतु आपके पास न बुलडोजर चलाने जैसा हौसला है न हिम्मत। न किसी तरह की इच्छाशक्ति है और न ही नीयत और नीती। यह बात मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूं कि आचरण और भाषण में पर्याप्त विरोधाभास के चलते नौजवानों का भरोसा लौटाना फिलहाल दूर दूर तक नहीं दिख रहा है। आगे क्या होगा, इसका फैसला भी नौजवान ही करेंगे। अर्जी की भर्ती ने वह भरोसा खो दिया है।

क्या यह तमाशा नहीं है कि विधानसभा अध्यक्ष जैसे गरिमामय पद पर रह चुके लोग बेशर्मी से कहें कि मेरे बेटे बहू पढ़े लिखे थे,बेरोजगार थे,इसलिए उन्हें नौकरी दे दी। दूसरे कहते हैं कि जरूरत थी, इसलिए बिना विज्ञप्ति आदि के अपने लोगों का सेवायोजन कर दिया। यही नहीं रेवड़ी की तरह एक ही साल में तीन तीन पदोन्नति देने में भी हाथ नहीं कांपे,जबकि पदभार संभालते समय शपथ ली थी कि ऐसा कोई आचरण नहीं करूंगा जिससे किसी के साथ अन्याय हो। शपथ के शब्द तो आपको भी याद होंगे कि ‘मैं किसी के साथ अनुराग या द्वेष, भय अथवा पक्षपात’ नहीं करूंगा। यही शब्द थे न? नतीजा क्या रहा, यह भी बताने की जरूरत है क्या?

बात का और खुलासा कर देता हूं-अपने-अपने समय में मनमानी भर्तियां करने वाले दो पूर्व स्पीकरों का कहना है कि जरूरत के आधार पर ऐसा किया गया है। यह कहां तक तर्कसंगत है। इसे इस संदर्भ में देखा जाए कि स्पीकरों ने ये भर्तियां अपना कार्यकाल समाप्त होने से ऐन पहले क्यों की हैं। यह सवाल तो पूछा ही जाएगा कि क्या पांच साल तक उन्हें पता ही नहीं चला कि विधान सभा में स्टाफ कम है। दूसरे भर्ती होने वालों के प्रमाणपत्रों की जांच तक नहीं करवाई गईं। एक व्यक्ति कुंजवाल जी को अर्जी देता है कि मुझे किसी भी पद पर नौकरी दी जाए और तत्काल कुंजवाल जी बिना देर किए सचिव को लिख देते हैं कि रक्षक पद पर तदर्थ नियुक्ति दी जाए। अपने बेटे, बहू, भतीजे और अन्य की अर्जियों पर भी कमोबेश इसी तरह के आदेश लिखे गए।

अब आइए अग्रवाल जी का कारनामा भी देख लीजिए-मुकेश सिंघल सजातीय थे तो उन्हें एक नहीं बल्कि साल भर के भीतर तीन प्रमोशन दे दिए और सिंघल साहब भी क्यों देर करते उन्होंने तत्काल अपनी वेतन वृद्धि के आदेश पारित कर दिए। अपना भांजा कहीं रह न जाए, राकेश गोयल जो पहले से अपना कारोबार कर रहा था, उसे भी विधानसभा में भर्ती कर दिया। यही नहीं, दर्जनों अन्य लोग भी भर दिए जबकि योग्य लोग देखते रह गए।

कुंजवाल जी ने भी बेटे, बहू, भतीजे सहित 172 लोगों का जीवन धन्य कर डाला। ऐसा नहीं कि केवल इन दो महानुभावों ने ही ऐसा किया, बल्कि पहले दिन से यह खेल चला आ रहा है किंतु जब 2011 में विधानसभा सेवा नियमावली निर्धारित हो गई तो सब कुछ नियम कायदे से होना चाहिए था,किंतु विवेकाधीन का रोग तो संक्रामक हो गया है।

इन दोनों महानुभावों द्वारा की गई भर्तियों में एक बड़ी बात यह भी सामने आ रही है कि कृपा पात्रों को नौकरी तो एक सादे आवेदन पर दे दी गई। लेकिन इनके प्रमाणपत्रों की सत्यता जानने का कोई भी प्रयास तक नहीं किया गया। यदि यही सच है तो यह न सिर्फ नाकाबिले बर्दाश्त है बल्कि कदाचार का उदाहरण भी है, जिस पर विराम तो लगना ही चाहिए। निसंदेह आशंका इस बात की भी है कि अगर जांच की गई तो कहीं अध्यापकों की तरह ही कइयों के अभिलेख फर्जी पाए जा सकते हैं। लिहाजा इस पर वर्तमान स्पीकर से न्याय की अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए।

निष्कर्ष यह कि उत्तराखंड में सृजित किए गए बैकडोर कैडर को जब तक खत्म नहीं किया जाता तब तक युवाओं की आंखों से बह रहे आंसुओं पर विराम नहीं लग सकता। आप कितने भी धाकड़ क्यों न गिने जाते हों,जब तक उसके अनुरूप आचरण नहीं दिख जाता तब तक बात बेमानी ही रहेगी। लिहाजा कान खोल कर सुनने की बात यही है कि सिर्फ गाल न बजायें बल्कि जंग खा रहे बुलडोजर को बाहर निकाल कर सचमुच का सफाई अभियान शुरू करें ताकि कोई अन्य हाकम, केंद्रपाल न बन सके और न कोई नेता अथवा अधिकारी इनको पालने का जोखिम उठाने से पहले दस बार सोचे। अभी तक जो चल गया, सो चल गया। अब और गुंजाइश नहीं है, वरना धाकड़ जी! लोग 2024 का इंतजार नहीं करेंगे, उससे पहले भी बहुत कुछ हो सकता है। कहते हैं समझदार के लिए इशारा काफी होता है और इस समय स्थिति विस्फोटक बनी हुई है। अगर आप देख नहीं पा रहे हैं तो दोष मेरा नहीं, आपका ही है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार,उत्तराखंड मामलों के जानकार है