पहाड़ी क्षेत्रों में पारम्परिक रूप से उगाई जाने वाली लहसुन जैविक होने के साथ ही अधिक पौष्टिक,स्वादिष्ट व औषधीय गुणों से भरपूर होती है, जिस कारण बाजार में इसकी मांग अधिक रहती है। स्थानीय किस्में यहां की भूमि व जलवायु में रची-बसी होती है जिन्हें बीमारी व कीट कम नुकसान पहुंचाते हैं साथ ही सूखा व अधिक बर्षा में भी स्थानीय किस्में अच्छी उपज देती है।
योजनाओं में विभागों/संस्थाओं द्वारा दिया गया अधिकतर बीज निम्न स्तर का होता है जिसमें कई प्रकार की बीमारियां व कीटों का प्रकोप अधिक होता है।
लहसुन पहाड़ी क्षेत्रों की एक प्रमुख नगदी/व्यवसायिक फसल है। पारम्परिक रूप से उगाई जाने वाली लहसुन जैविक होने के साथ ही अधिक पौष्टिक,स्वादिष्ट व औषधीय गुणों से भरपूर भी होती है जिस कारण बाजार में इसकी मांग अधिक रहती है।
उद्यान विभाग के बर्ष 2015 – 16 में दर्शाये गये आंकड़ों के अनुसार राज्य में 1530.45 हैक्टर क्षेत्र फल में लहसुन की खेती की जाती है जिससे 9768.25 मैट्रिक टन उत्पादन होता है।
जलवायु
ऐसी जगह जहां न तो बहुत गर्मी हो और न ही बहुत ठण्डा लहसुन की खेती के लिए उपयुक्त है। लहसुन की खेती 1000 से 1500 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र जहां तापमान 25 – 35 डिग्री सेल्सियस रहता हो आसानी से की जा सकती है।
भूमि का चयन
लहसुन की खेती बलुई दोमट से लेकर चिकनी दोमट मिट्टी में की जा सकती है किन्तु जीवांश युक्त दोमट तथा बलुई दोमट भूमि जिसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था हो उपयुक्त होती है। भूमि का मृदा परीक्षण अवश्य कराएं। भूमि का पी.एच. मान 6 से 7 के बीच का उत्तम रहता है। यदि भूमि का पी.एच. मान 6 से कम है तो खेत में 3 – 4 किलोग्राम चूना प्रति नाली की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला लें।
भूमि में जैविक कार्बन की मात्रा 0.8 प्रतिशत से कम होने पर 10 – 20 किलोग्राम जंगल/बड़े वृक्ष के जड़ों के पास की मिट्टी खुरच कर खेत में प्रति नाली की दर से मिला दें साथ ही गोबर/कम्पोस्ट खाद तथा मल्चिंग का प्रयोग अधिक करें।
उन्नत किस्में
यमुना सफेद (जी- 1) एग्रीफाउड व्हाइट, एग्रीफाउण्ड पार्वती, वी. एल.- 1, वी एल -2 आदि।
लहसुन की खेती राज्य में परंपरागत रूप से पीडियों से होती आ रही है स्थानीय किस्में यहां की भूमि व जलवायु में रची-बसी है इनमें बीमारी व कीटों का प्रकोप कम होता है साथ ही सूखा व अधिक बर्षा में भी स्थानीय किस्में अच्छी उपज देती है।
उद्यान विभाग /संस्थाओं द्वारा वितरित किया जाने वाला बीज अधिकतर निम्न स्तर का होता है उसमें कई प्रकार की बीमारियां व कीटों का प्रकोप अधिक होता है अतः जैविक व अधिक उपज लेने के लिए अपने क्षेत्र की प्रचलित और अधिक पैदावार देने वाली रोग रोधी लहसुन की किस्मों का चयन करें।
खेत की तैयारी
लहसुन की जैविक फसल हेतु खेत की गहरी जुताई कर खेत को कुछ समय के लिए छोड़ दें जिससे उसमें मौजूद कीट धूप से नष्ट हो जायें। जुताई के बाद खेत को समतल कर क्यारियां बना लें । क्यारियौ में 4 से 5 कुन्तल गोबर की खाद प्रति नाली की दर से मिलायें। इसका बुआई का समय 15 सितंबर से 15 अक्टूबर के बीच होता है।
लहसुन बीज
लहसुन के कंदों में कई कलिया (क्लोव्स) होते हैं| इन्हीं कलियों को गांठों से अलग करके बुवाई की जाती है| अधिक व गुणवत्ता वाली पैदावार के लिये लहसुन की बुवाई हेतु बड़े आकार के क्लोव्स (जवे) जिनका व्यास 8 से 10 मिलीमीटर हो, प्रयोग करना चाहिए| इसके लिये शल्क कंद के बाहरी तरफ वाली कलियों को चुनना चाहिए| कंद के केन्द्र में स्थित लंबी खोखली कलिया बुवाई के लिए अनुपयुक्त होती हैं क्योंकि इनसे अच्छे कंद प्राप्त नहीं होते ।
बीज की मात्रा
एक नाली के खेत में लगभग 10 – 12 किलो लहसुन बीज की आवश्यकता पड़ती है।
भूमि उपचार
फफूंदी जनित बीमारियों की रोकथाम हेतु
एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को 25 किलोग्राम कम्पोस्ट (गोबर की सड़ी खाद) में मिलाकर एक सप्ताह तक छायादार स्थान पर रखकर उसे गीले बोरे से ढँकें ताकि ट्राइकोडर्मा के बीजाणु अंकुरित हो जाएँ। इस कम्पोस्ट को एक एकड़ ( 20 नाली) खेत में फैलाकर मिट्टी में मिला दें ।
बीज उपचार- बुआई से पहले फलियों को ट्राईकोडर्मा 10 से 15 ग्राम की दर से प्रति लीटर पानी में घोल बना लें इस घोल में एक किलो बीज को 30 मिनट तक डुवो कर रखें तत्पश्चात बीज को छाया में सुखाकर बुवाई करें। बीजा मृत से भी लहसुन की फलियों को उपचारित किया जा सकता है। एक नाली में 10 किलो ग्राम लहसुन बीज की आवश्यकता होती है इसप्रकार दस किलो ग्राम बीज उपचारित करने हेतु दस से पन्द्रह लीटर घोल की आवश्यकता होगी।
दूरी
लहसुन की बुवाई 15 x 10 सेंटीमीटर याने लाइन से लाइन 15 सेन्टीमीटर तथा लाइन में बीज से बीज की दूरी 10 सेन्टिमीटर रखते हैं।
बीज की बुआई लगभग 5 से 6 सेंटीमीटर गहरी करते हैं| बुवाई करते समय यह ध्यान देना आवश्यक है, कि कलियों (क्लोव्स) का नुकीला भाग ऊपर रहे | बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है| रोपाई के बाद 2-3 दिनों के अंतराल पर फसल की निगरानी करते रहें बुवाई के 8-10 दिनों बाद निगरानी के समय कटुवा कीट और व्हाइट ग्रब या अन्य कारणो से बीज न जमने पर उनके स्थान पर नया बीज बोऐं। यदि खेत में कटुवा कीट और व्हाइट ग्रब की सूंडियों दिखाई दें तो उन्हें एकत्रित कर नष्ट करें। फसल की निगरानी के समय यदि रोग का प्रकोप दिखाई दे तो शुरू की अवस्था में ग्रसित पत्तियों/पौधों को नष्ट कर दें इससे रोगौं का प्रकोप कम होगा।
खाद व पोषण प्रबंधन
10 लीटर जीवा मृत प्रति नाली की दर से 20 दिनों के अन्तराल पर खड़ी फसल में डालते रहना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन सामान्यतया लहसुन को वानस्पतिक वृद्धि के समय 7 से 8 दिन के अन्तर पर तथा परिपक्वता के समय 10 से 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है| पहली सिंचाई बुवाई के बाद की जाती हैं| लहसुन के वृद्धि काल में भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा कंदों का विकास प्रभावित होता हैं| लहसुन उथली जड़ वाली फसल है|
जिसकी अधिकांश जड़ें भूमि के उपर 5 से 7 सेंटीमीटर के स्तर में रहती है| इसलिए प्रत्येक सिंचाई में मिटटी को इस स्तर तक नम कर देना चाहिए| जब फसल परिपक्वता पर पहुँच जाये तो सिंचाई बंद कर खेत सूखने देना चाहिए
पलवार (मल्च)- बुवाई के एक- दो सप्ताह बाद कतारों के बीच में पलवार (मल्च)का प्रयोग करें। पेड़ों की सूखी पत्तियां, स्थानीय खर पतवार व घास,धान की पुवाल आदि पलवार के रूप में प्रयोग की जा सकती है। पलवार का प्रयोग भूमि में सुधार लाने, तापमान बनाये रखने, उपयुक्त नमी बनाए रखने, खरपतवार नियंत्रण एवं केंचुओं को उचित सूक्ष्म वातावरण देने के लिए आवश्यक है।
निराई –गुड़ाई
अच्छी उपज और गुणवत्तायुक्त कंद प्राप्त करने के लिए समय से निराई-गुड़ाई करके लहसुन की क्यारी को साफ रखना आवश्यक है| पहली निराई रोपण या बुआई के एक माह बाद एवं दूसरी निराई, पहली के एक माह बाद अर्थात बुआई के 60 दिन बाद करनी चाहिए| कंद बनने के तुरन्त पहले निराई-गुड़ाई करने से मिट्टी ढीली हो जाती है| | लहसुन की जड़े अपेक्षाकृत कम गहराई तक जाती हैं| इसलिए गुड़ाई हमेशा उथली करके खरपतवार निकाल देते हैं| बुआई के 45 दिन पश्चात् एक बार निराई-गुड़ाई कर देने से फसल अच्छी पनपती है|
प्रमुख कीट
थ्रिप्स कीट- यह कीट लहसुन की पत्तियों को खुरचकर रस चूसते हैं| क्षतिग्रस्त पत्तियाँ चमकीली सफेद दिखती है, जो बाद में ऐंठकर मुड़ और सूख जाती है| कीट के प्रकोप से लहसुन के पौधों में बीमारियाँ अधिक आने लगती है|
माइट- इस कीट के कारण पौधों की पत्तियां पूर्णरूप से नहीं खुल पाती है| पत्तियों के किनारे पर पीलापन आता है तथा पूरी पत्तियॉ सिकुड़ कर एक दूसरे से लिपट जाती है|
चैपा- यह कीट पौधों का रस चूसते हैं, जिससे पौधे कमज़ोर बनाते हैं| गंभीर हमले से पौधे के पत्ते मुड़ जाते हैं तथा पत्तों का आकार बदल जाता है|
कीट नियंत्रण
1. खडी फसल का समय-समय पर निरीक्षण करें पौधों पर कीड़ों के अंडे, शिशु व वयस्क यदि दिखाई दें तो पौधे के उस भाग को हटा कर एक पौलीथीन की थैली में इकट्ठा कर गड्ढे में गहरा दबा कर नष्ट करें।
2. थ्रिप्स नियंत्रण हेतु पीली एवं नीली स्टिकी ट्रैप का प्रयोग करें। ट्रैपों को पौधे से 30 – 40 सेमी ऊंचाई पर लगाएं। यह ऊंचाई थ्रिप्स के उड़ने के रास्ते में आएगी। एक नाली हेतु दो ट्रेप प्रयोग करें।
3. एक चम्मच प्रिल, निर्मा लिक्युड या कोई भी डिटर्जेन्ट/ साबुन , प्रति दो लीटर पानी की दर से घोल बनाकर कर स्प्रे मशीन की तेज धार से कीटों से ग्रसित भाग पर छिड़काव करें। तीन दिनों के अन्तराल पर दो तीन बार छिड़काव करें। ध्यान रहे , छिड़काव से पहले घोल को किसी घास वाले पौधे पर छिड़काव करें यदि यह पौधा तीन चार घंटे बाद मुरझाने लगे तो घोल में कुछ पानी मिला कर घोल को हल्का कर लें।
4. एक लीटर , सात आठ दिन पुरानी छांच/ मट्ठा को छः लीटर पानी में घोल बनाकर तीन चार दिनों के अन्तराल पर दो तीन छिड़काव करने पर भी कीटों पर नियंत्रण किया जा सकता है।
5. एक कीलो लकडी की राख में दस मिली लीटर मिट्टी का तेल मिलाएं । मिट्टी का तेल मिली हुई लकड़ी की राख प्रति नाली 500 ग्राम की दर से कीटों से ग्रसित खड़ी फसल में बुरकें।
6. एक लीटर, आठ दस दिन पुराना गौ मूत्र का छः लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। गौमूत्र जितना पुराना होगा उतना ही फायदेमंद होगा। 10 दिनों के अन्तराल पर फसल पर गौमूत्र का छिड़काव करते रहें। माइक कीट नियंत्रण हेतु यह प्रभावी उपाय है।
7. व्यूवेरिया वेसियाना 5 ग्राम एक लीटर पानी में घोल बनाकर पौधों पर तथा पौधों की जड़ों के पास छिड़काव कर जमीन तर करें इससे कट वर्म व कुरमुला कीट नियंत्रण हो जाता है।
8. नीम पर आधारित कीटनाशकों जैसे निम्बीसिडीन, निमारोन,इको नीम या बायो नीम में से किसी एक का 5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर सांयंकाल में या सूर्योदय से एक दो घंटे पहले पौधों पर छिड़काव करें। घोल में प्रिल,निर्मा, सैम्पू या डिटर्जेंट मिलाने पर दवा अधिक प्रभावी होती है।
प्रमुख रोग
सफेद गलन- इस रोग के लक्षण जमीन के समीप लहसुन का ऊपरी भाग गल जाता है और संक्रमित भाग पर सफेद फफूंद और जमीन के ऊपर हल्के भूरे रंग के सरसों के दाने की तरह सख्त संरचनायें बन जाती है, संक्रमित पौधें मुरझा जाते हैं तथा बाद में सूख जाते हैं|
बैंगनी धब्बा- इस रोग को फैलाने वाले रोगकारक फफूंद बीज और मिटटी जनित होते हैं| इस रोग के लक्षण लहसुन की पत्तियों और बीज फसल की डंठलो पर शुरूआत में सफेद भूरे रंग के धब्बे बनते हैं| जिनका मध्य भाग बैगनी रंग का होता है| इस रोग का संक्रमण उस समय अधिक होता है, जब वातावरण का तापक्रम 27 से 30 सेंटीग्रेट तथा आर्द्रता अधिक हो।
रोक थाम
1.फसल की बुआई अच्छी जल निकास वाली भूमि पर करें।
2.फसल चक्र अपनायें।
3.भूमि का उपचार ट्रायकोडर्मा से करें।
4.खडी फसल की समय समय पर निगरानी करते रहें रोग ग्रस्त पौधे को शीघ्र हटा कर नष्ट कर दें।
5. प्रति लीटर पानी में 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर का घोल बनाकर पौधों पर 5-6 दिनों के अंतराल पर तीन छिड़काव करें व जड़ क्षेत्र को भिगोएँ।
खुदाई एवं भंडारण
जिस समय लहसुन की फसल की पत्तियाँ पीली पड़ जायें तथा सूखने लग जायें, फसल को परिपक्व समझना चाहिए| इसके बाद सिंचाई बंद कर देनी चाहिए और 15 से 20 दिनों बाद कंदों की खुदाई कर लेना चाहिए| खुदाई के बाद कंदों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखा लेते हैं| फिर 2 से 2.5 सेंटीमीटर छोड़कर पत्तियों को कंदों से अलग कर कंदों का भण्डारण करते हैं।
बीज के लिए या लम्बे समय के भंडारण हेतु खुदाई के बाद लहसुन सम्पूर्ण पौध के साथ छाया में सुखाकर गट्ठियां बनाकर ठन्डे, सूखे ,अंधेरे व हवादार स्थानों में भण्डारित करें।
उपज
लहसुन की फसल बीज बुवाई से 130 से 150 दिनों के अंतराल पर तैयार होती है तथा 100 से 150 किलो ग्राम प्रति नाली तक उपज प्राप्त हो जाती है।
परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत लहसुन की क्लस्टर में जैविक खेती कर तथा उपज का जैविक प्रमाणीकरण करा कर कृषकों की आय बढ़ाई जा सकती है।
लेखक-वरिष्ठ सलाहकार है (कृषि एवं उद्यान) एकीकृत आजीविका सहयोग परियोजना उत्तराखंड