उत्तराखंड के इतिहास में एक ऐसा चरित्र है जो इतिहास से मिथक की यात्रा पर निकल पड़ा है। उसके बारे में तथ्य से ज्यादा किवदंतियां हैं। ऐतिहासिक पात्र के रूप में उसके चरित्र के कई पाठ हैं। इतिहास के इन पाठों में कहीं वह नायक तो कहीं खलनायक है लेकिन मिथक के रूप में वह खलनायक ही है। इसी नायक-खलनायक के द्वंद से उभरता और बनता वह चरित्र हर्षदेव जोशी का है।
इतिहास या हिस्ट्री का अर्थ ही है इनक्वायरी यानि इतिहास अतीत की इनक्वायरी या पड़ताल है। अतीत की घटनाओं की तथ्यात्मक पड़ताल का भाष्य इतिहास गढ़ता है जबकि मिथकीय चरित्र चमत्कार से पूर्ण होते हैं। लोक में इतिहास के पात्र मिथकीय चेतना में घुलकर ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ते रहते हैं।
इतिहास के पाठ के साथ एक समस्या यह है कि वो ठोस नहीं है बल्कि समय- काल, परिस्थिति और विचारधारा के साथ उसकी व्याख्या होती रहती है। तैमूर अगर हिन्दुस्तान में लुटेरा था तो उजबेकिस्तान में फादर ऑफ नेशन,चंगेज़ खां ने पूरी दुनिया में लूटपाट की लेकिन मंगोलिया में राष्ट्रपिता माना गया,नादिर शाह की हमारे यहां की छवि से ईरान में उसकी छवि एकदम अलग है। यह मसला इतिहास के पाठ का है।
अब वापस लौटते हैं उत्तराखंड के इतिहास के उस चरित्र की तरफ जो किंगमेकर है,कूटनीतिज्ञ है,कुशल प्रशासक है,चतुर है,विद्वान है, नीति-रीति को गहराई से समझता है, इतिहास की तरह ठोस नहीं तरल है। उसके व्यक्तित्व के कई पक्ष हैं। उसके व्यक्तित्व के यही पक्ष ही उसे नायक-खलनायक भी बनाते हैं।
चंद,परमार,गोरखा और अंग्रेजों के समय तक वह राजनीतिक हलचलों के केंद्र में किसी न किसी रूप में मौजूद रहा।
इस तरह के डायनमिक चरित्र पर चारू तिवारी दा ने “एक चाणक्य ऐसा भी” नाटक लिखा। यह एक तरह से इतिहास के पन्नों से धूल झाड़ना है तो वहीं समाज में ऐतिहासिक चेतना के निर्माण का अभ्यास भी है। किसी भी समाज की प्रगति का आंकलन उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक बोध से किया जा सकता है। यह नाटक भी इतिहास के पाठ और पुनर्पाठ के रूप में दर्शकों तक पहुँचता है।
मनोज चंदोला के निर्देशन में तैयार हुए इस नाटक ने हर्षदेव के चरित्र की सारी परतें खोलकर दर्शकों के सामने रख दी। बतौर निर्देशक उन्होंने कहीं भी यह कोशिश नहीं कि वह हर्षदेव के चरित्र पर कोई निर्णय दें। उन्होंने हर्षदेव जोशी के चरित्र का मूल्यांकन दर्शकों पर छोड़ दिया। दर्शक उसका मूल्यांकन करें कि वह नायक है या खलनायक या हर्षदेव जोशी ने उस समय जो किया वह परिस्थितिजन्य था या सोच-विचार कर लिया गया निर्णय!
नाटक में ‘जोश्याणा’ को हर्षदेव जोशी अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल स्वीकार करते हैं। यह स्वीकारोक्ति भी एक पाठ है। हर्षदेव जोशी का चरित्र निभा रहे सुधीर रिखाड़ी ने 1815 में दुनिया छोड़ चले हर्षदेव के चरित्र को मंच पर जिंदा कर दिया। डेढ़ घंटे तक यह नाटक दर्शकों को बाँधें रखने में कामयाब रहा है।
मुझे लगता है कि हर्षदेव जोशी के ऐतिहासिक पाठ के बाद जो यह नाटकीय पाठ खेला गया है । वह हर्षदेव जोशी के चरित्र के प्रति दिलचस्पी तो पैदा करेगा ही साथ ही ऐतिहासिक चेतना का निर्माण भी करेगा।