पहाड़ के वजूद को बचाने में सर्वस्व निछावर करता नेपाली बहादुर

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सुभाष गुसांई

भारत और नेपाल के बीच सम्बन्ध अनादि काल से हैं। दोनों पड़ोसी देश हैं, इसके साथ ही दोनों देशों की धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषायी एवं ऐतिहासिक स्थिति में बहुत अधिक समानता है। इसी लिए कहा जाता हैं कि भारत-नेपाल के बीच ‘रोटी-बेटी’ का रिश्ता है। भारत की बहुत सी बेटियां नेपाल में बहू के रूप में आई है और नेपाल की तमाम बेटियां भारत में बहू के रूप में है।

उत्तराखंड के परिपेक्ष में उत्तराखंड-नेपाल के रिश्ते और करीब के है। उत्तराखंड का लोक सांस्कृतिक परिवेश,लोक परंपारएं और खाना-पाना में बहुत समानता है। इस लिए भी नेपाल और उत्तराखंड का जीवन परिवेश हमेशा से अपनेपन की लीक पर चलता है।

कोरोना की वैश्विक महामारी के बीच दुनिया ने बहुत कुछ खोया। लेकिन इस वैश्विक महामारी के बीच कुछ लोगों ऐसे भी खड़े हुए जिन्होंने एक-दुसरे को तो संभाला ही साथ ही,इस महामारी के बीच खुद की जान की प्रवाह किए बगैर एक नई मिसाल भी पेश की। इन्हीं में शामिल है नेपाली मजदूर,जिन्हें इस भयंकर बीमारी के बावजूद नेपाल नहीं भेजा गया। जिसका सुफल परिणाम यह हैं कि इन नेपाली बहादुरों ने पूरी ईमानदारी के साथ पहाड़ के वजूद को बचाए रखने में अपना सर्वस्व निछावर कर दिया।आमतौर पर ये लोग बोझा उठाने का काम करते हैं, वैसे ये चौकीदारी, गाड़ियों को धोने व नौकरों का काम भी बखूबी करते हैं। बोझा ढोना इनका मुख्य काम है, ये बहुतायत संख्या में बस स्टैंड आदि जगहों पर दिखाई देते हैं।

पहाड़ों में इनको डोटियाल या बहादुर आदि नाम से जाना जाता है। बहादुर कहना तो कही हद तक ठीक है क्योंकि इनके पारिवारिक नामों के साथ अधिकतर बहादुर ही जुड़ा होता है। जैसे रण बहादुर थापा आदि, कुछ लोग इन्हें थापा भी कहते हैं। लेकिन डोटियाल क्यों कहाँ जाता है पता नहीं।ये बहुत ईमानदार होते हैं,बोझ कितना भी भारी हो या फिर कोई भी कार्य कितना ही मुश्किल ही क्यों न हो इन्हें कोई फ़िक्र नहीं। इनका सीधा मतलब पैसे से होता है,आप कितनी ध्याड़ी दोगे उस पर निर्भर करता है। ऐसे ही एक बार एक बहादुरों की टोली हमारे गांव के घर भी रहा करती थी। जहाँ उनको हमने मुफ्त में रहने के लिए जगह दी थी। तो मैंने सुना था कि इनके नेपाल में बहुत शानदार जूते मिलते हैं तो मैंने कुछ पैसे देकर एक गोरे से बहादुर जो कि मेरा दोस्त बन गया था। अपने लिए जूते मंगवाए थे। कभी-कभी उस ज़माने में उनके साथ उनकी मोटी चूने की रोटी व सब्जी भी खा लेता था।

डोटियाल लोगों के बुजुर्गों ने बोझ कम करने का एक अनोखा तरीका बताया है। जब बोझ भारी लगने लगे तो बोझ पर एक पत्थर रख लेना चाहिए। कुछ दूर जाकर पत्थर उतार दो। बोझ हल्का हो जाएगा। ऐसा मनोवैज्ञानिक तरीका इन अनपढ़ों ने किस विश्वविद्यालय से सीखा होगा? जाहिर है वाट्सप विश्वविद्यालय से तो नहीं सीखा होगा। यह उनके खुद का अनुभव है,जो किसी विश्वविद्यालय का मोहताज नहीं है। डोटियाल लोग कंधे पर रस्सी घुटनों तक टाइट जींस ,पैरों में हवाई चप्पल, उकड़ू बैठे हुए, खैनी मलते हुए या बीड़ी पीते हुए आपको हर बस स्टैण्ड पर मिल जाएंगे। यही उनकी पहचान है। आप आराम से उनके पास जाकर सामान ढोने का मोल भाव कर सकते हैं।

नेपाली श्रमिक चौकीदारी करते हैं तो पूरे जी जान से,वे रात को डण्डा बजाते  हैं। सीटी पर सीटी बजाते हैं। गली के आवारा कुत्तों को भी इनकी आदत हो गयी रहती है। वे इसे अपनी आजादी का अतिक्रमण नहीं मानते।दोनों एक दूसरे से खुश रहते हैं। जब चौकीदार अपना दातव्य लेने माह में एक बार घर-घर जाता है तो बड़ी कोठियों वाले झिकझिक करते हैं। बड़ी मुश्किल से इनके हाथ पर सौ पचास रखते हैं,मानों खैरात दे रहे हों। जो रतजगा कर चौकीदारी करते हैं, वे दिन में गाड़ी भी धोते हैं। गाड़ी की सफाई अव्वल दर्जे की होती है।

अधिकांश लोग अपनी गाड़ी इन बहादुर लोगों से ही धुलवाते हैं। कुछ घरों में गोरखा नौकर भी होते हैं। इनकी स्वामीभक्ति आला दर्जे की थी। कुछ घटनों  के हो जाने के बाद लोग इन पर शक करने लगे हैं। इनके शोक भी कुछ अलग है। पूरे दी हाड़तोड़ मेहनत और शाम को किसी दारू की भट्ठी पर जाकर कच्ची की चुसकी खाना-पाना मस्त और फिर आराम,अगले दिन तरोताजा हो फिर अपने काम पर लग जाना इनका प्रथम कर्तव्य होता है। इस लिए ही यह बाहदुर पहाड़ की जीवन रेखा की धुरी ही नहीं बल्कि आज के समय में पहाड़ को जीवित रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है। हम आज भले ही शहरों में अपना जीवन यापन कर रहे हैं,लेकिन इन बाहदुरों ने हमारे पहाड़ों को,हमारी बुढ़ी नम् आंखों को हमारे खेत-खहिलानों को अपनी मेहनत और ईमानदारी के दम पर जीवित रखता है। इसके लिए इनके जज्बे को सलाम किया जाना चाहिए।