पहाड़ के एक साधारण मनुष्य का एक ईमानदार और निस्पृह जीवन चरित- कारी तु कब्बि ना हारी

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शिवप्रसाद जोशी,
शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार,लेखक,अनुवादक हैं व मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं। डायचे वेले और बीबीसी के नियमित ब्लॉगर हैं।

उत्तराखंड के ऋषिकेश नगर से नवोदित काव्यांश प्रकाशन से हाल में आयी श्री ललित मोहन रयाल की किताब कारी तु कब्बि ना हारी एक सुखद आश्चर्य की तरह है। भाषा की मिठास, शैली की एक मौलिक सादगी और विचार की प्रखरता ने इस किताब को विशिष्ट बनाया है।

यह सिर्फ एक बेटे की अपने पिता को याद करती भावनात्मक या सेंटीमेंटल पुस्तक ही नहीं हैं। यह पहाड़ के एक साधारण मनुष्य का एक ईमानदार और निस्पृह जीवन चरित है। जिसे पूरी इमोश्नल इंटेलिजेंस के साथ एक औपन्यासिक आख्यान की तरह, रयाल जी ने ‘हल्के हाथ’ से लिखा है। बेशक संपादन में और कसाव की ज़रूरत पाठकों को महसूस हो सकती है। लेकिन यह चुनौतीपूर्ण गद्य है।

इसमें बाह्य चमक और साजसज्जा और बेलबूटे नहीं है। किरदारों का खुरदुरा जीवन ही जैसे कथानक को प्रकाशित कर रहा है। गढ़वाल के जीवन और परिवेश की महक भी इसमें बिखरी हुई है। इसी लिए भाषा से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। संवेदना और ऐसे में यह किताब अपनी जड़ों को याद करती है। घर-परिवार और व्यक्ति के नाते से ही नहीं बल्कि समाज और संवेदनात्मक  इकोसिस्टम के नाते से भी,यह हिंदी की वर्चस्ववादिता और हिंदी के मेजोरिएटीनिज़्म के शोर को अपनी विनम्र सादगी से चकित और चुप भी करती है।

गढ़वाली के संवाद, उक्तियां, औखाणे पाठ को एक स्थानिक स्वाद और ताज़गी से भरते रहते हैं। लेकिन कोई उसे महज़ रुमानियत मानने की भूल न करे,वो समकालीन समय के दुष्चक्रों का फ़ाश करने वाली भाषा भी है। जो हिंदी के दबंग संसार के समक्ष यह कहने का साहस करती है। कारी तु कब्बि ना हारी,हमारे इस नये उत्तरआधुनिक हुए जाते समाज को अपने देस-मुलुक-भूगोल की और भी ऐसी संवेदनशील, वस्तुनिष्ठ, ईमानदार और मर्मस्पर्शी कथाओं की सख़्त ज़रूरत है।