कोरोना संकट में एकजुटता का अभाव

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कमल किशोर डुकलान

कोरोना संक्रमण के समय में राजनैतिक वर्ग को आरोप-प्रत्यारोप में न उलझकर एकजुट होना चाहिए। खेदजनक यह है कि देश की उच्चतर अदालतें भी सरकारों और उनके प्रशासन को सुझाव या मार्गदर्शन देने से ज्यादा उन्हें फटकारने में लगी हुई हैं।

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में देश गहन संकट में है,लेकिन आये दिन मीडिया में राजनीतिक वर्ग के रुख-रवैये से ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि वह इस राष्ट्रीय आपदा के समय का मिलकर सामना करने को तैयार है। कोरोना के कहर से बचने के लिए उठाए जा रहे कदमों के बीच केंद्र और राज्यों के बीच की तकरार और टकराव का सिलसिला किस तरह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है,इसके पिछले उदहारण दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच प्राण वायु को लेकर बड़ी बहस और अब नया उदाहरण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का प्रधानमंत्री के फोन पर मीडिया में दी जा रही अमर्यादित टिप्पणी करना केन्द्र सरकार और राज्य सरकार में इस संकटकालीन समय में संक्रमितों की चिंता कम और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर ज्यादा चल रहा है।

कारण जो भी हो, लेकिन कारण जो भी हो इस महामारी में ऐसे कथन की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि यह समय कोरोना संक्रमण से उपजी महामारी से लड़ने का है,न कि प्रधानमंत्री के फोन पर टिप्पणी से। दुर्भाग्य से संकट की गंभीरता की अनदेखी करने का यह इकलौता प्रसंग नहीं। क्या इसकी अनदेखी की जा सकती है कि इन दिनों कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी देश को केवल यह बताने में लगे हुए हैं कि प्रधानमंत्री निष्क्रिय और नाकाम हैं। मीडिया में शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो,जब वह केंद्र सरकार की निंदा न करते हों।सरकार को कठघरे में खड़ा करने की ललक में राहुल गांधी यह भी भूल जाते हैं कि उन्होंने चार दिन पहले क्या कहा था?

राहुल गांधी कभी खुद को लॉकडाउन के खिलाफ बताते हैं,तो कभी बिना लॉकडाउन लगाए बात न बनने की बात करते हैं। वास्तव में जब इरादा समस्याओं के समाधान में सहभागी न बनने का हो तो फिर ऐसा ही होता है। राहुल गांधी अभी तक मीडिया में तंज भरे ट्वीट ही करते थे,अब चिट्ठी भी लिख रहे हैं।विपक्ष द्वारा चिट्ठी-पत्री,आरोप-प्रत्यारोप का यह काम आपदा निपटने के बाद भी किया जा सकता है।यह समझना कठिन है कि जब केंद्र और राज्यों के बीच संवाद का सिलसिला कायम है,तो फिर सोनिया गांधी को सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग करने की आवश्यकता क्या पड़ गई? कई नेता तो ऐसे हैं जो कोरोना संकट से जुड़ी किसी समस्या के गहराने पर ऐसा जताते हैं,जैसे उनके मन की मुराद पूरी हुई हो। यह खेद का विषय है कि जब राजनीतिक वर्ग को एकजुट होना चाहिए,तब वह आरोप-प्रत्यारोप में उलझा हुआ है। इससे भी अधिक खेदजनक बात यह है कि देश की उच्चतर अदालतें आये दिन सरकारों और उनके प्रशासन को सुझाव या मार्गदर्शन देने से ज्यादा उन्हें फटकारने में लगी हुई हैं। कम से कम उन्हें तो मौके की नजाकत समझनी चाहिए।