शहीद दिवस पर विशेष:-सरकारी रिकॉर्ड में भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु को कब मिलेगा शहीद का दर्जा?

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युद्धवीर सिंह लांबा

 ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा।

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,

जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा’

1916 में मशहूर क्रांतिकारी कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ जी द्वारा देशभक्ति की लिखी कविता की ये पंक्तियां देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरू के लिए बेमानी साबित हो रही हैं।  बडे़ दुख की बात है कि 15 अगस्त 2021 को देश की आजादी को 75 साल हो चुके हैं, लेकिन देश के लिए मर मिटने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को शहीद का दर्जा नहीं मिल सका ।

23 मार्च को तीन महान क्रांतिकारी भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव का शहीदी दिवस है । लाहौर के शादमान चौक पर 23 मार्च, 1931  के दिन भारत में ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकन में अपना अहम किरदार निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर लटकाया गया था, तभी से हर साल 23 मार्च को इन तीन शहीदों की याद में शहीदी दिवस मनाया जाता है।

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग-ए-आजादी में

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जी हुये थे कुर्बान ।

लकिन देश की आज़ादी के 75 साल के बाद भी नहीं मिला

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जी को शहीद का सम्मान ।।

देश में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को लेकर जिस तरह से लोग प्रदर्शन और विरोध कर रहे थे, अंग्रेज सरकार डर गई थी। तीनों सपूतों को फांसी 24 मार्च 1931 की सुबह दी जानी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार  ने नियमों को दरकिनार कर एक रात पहले ही तीनों क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया । ब्रिटिश सरकार ने फांसी के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों को परिवार को सौंपने के बजाय शवों के टुकड़े-टुकड़े करवाकर सतलुज नदी के किनारे स्थित हुसैनीवाला के पास  बेहद अपमानपूर्वक जलाने की कोशिश की थी।

देश का दुर्भाग्य है कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए उनके परिजनों को भूख हड़ताल करनीं पड़ रही है। शहीद का दर्जा दिलवाने के लिए उनके परिजनों को सड़कों पर धक्के खाने पड़ रहे हैं।  सितंबर 2016 में इसी मांग को लेकर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के वंशज जलियांवाला बाग से इंडिया गेट तक शहीद सम्मान जागृति यात्रा निकाल चुके हैं ।  भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन सरकारों की तरफ से उचित सम्मान आजतक नहीं मिल पाया है जोकि अत्यंत शर्मनाक, दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है।

शहीद भगत सिंह के प्रपौत्र यदवेंद्र सिंह के मुताबिक अप्रैल 2013 में आरटीआई के जरिए उन्होंने भारत के गृह मंत्रालय से पूछा था कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को कब शहीद का दर्जा दिया गया था। और अगर ऐसा अब तक नहीं हुआ, तो सरकार उन्हें यह दर्जा देने के लिए क्या कदम उठा रही है?  मई, 2013 में भारत के गृह मंत्रालय के लोक सूचना अधिकारी  श्यामलाल मोहन ने जवाब दिया कि मंत्रालय के पास यह बताने वाला कोई रिकॉर्ड नहीं कि इन तीनों क्रांतिकारियों को कब शहीद का दर्जा दिया गया।

इससे बड़ा देश का कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता है कि आज शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आतंकवादी कहा जा रहा है तथा स्कूलों एवं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में भी आतंकवादी पढ़ाया जा रहा है। वर्ष 2007 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा – मुख्य परीक्षा की सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र में प्रश्न पूछा गया था कि ‘स्वतत्रंता के लिए भारत के संघर्ष के उद्देश्य को भगत सिंह द्वारा निरूपित क्रांतिकारी आतंकवाद के योगदान का मूल्यांकन कीजिए’ ।

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही ‘स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष’ शीषर्क से लिखी एक पुस्तक के 20वें अध्याय में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन और अन्य को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया गया है। यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से दिल्ली विश्वविद्यालय  के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है। इस पुस्तक का पहला संस्करण 1990 में प्रकाशित हुआ था।   यह पुस्तक मशहूर इतिहासकार बिपिन चंद्र, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी व सुचेता महाजन ने मिलकर लिखा है। 

भगत सिंह को 19 साल की उम्र में विवाह के बंधन में बांधने का प्रयास किया गया तो वह घर से भाग गए और अपने पीछे अपने माता- पिता के लिए एक पत्र छोड़ गए जिसमें लिखा था, ‘‘मेरा जीवन एक महान उद्देश्य के लिए समर्पित है और वह उद्देश्य देश की आजादी है। इसलिये मुझे तब तक चैन नहीं है। ना ही मेरी ऐसी कोई सांसारिक सुख की इच्छा है जो मुझे ललचा सके।’’

लाला लाजपत राय ने अंग्रेजों के साइमन कमीशन के विरुद्ध 30 अक्टूबर 1928 को विशाल प्रदर्शन किया था। उस दौरान लाठीचार्ज में वे बुरी तरह घायल हो गए थे।  लाठीचार्ज के ठीक 18 दिन बाद 17 नवंबर 1928 को उन्होंने अंतिम सांस ली। इस लाठीचार्ज के जिम्मेदार पुलिस अफसर जॉन सांडर्स को 17 दिसंबर 1928 को राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह ने गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था।

8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली नई दिल्ली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूट बिल पेश होने के दौरान भगत सिंह और बीके दत्त ने बम फेंका था। दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन दोनों ने आत्मसमर्पण कर दिया ।

मेरा (युद्धवीर सिंह लांबा, वीरों की देवभूमि धारौली, झज्जर) मानना है कि शहीद-ए-आजम  भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करके नौजवानों के दिलों में आजादी का जुनून भरने वाले भगत सिंह का नाम इतिहास के पन्नों में अमर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी मिलने के बाद भगत सिंह के साथ – साथ सुखदेव और राजगुरु को भी शहीद घोषित करने से सरकारें परहेज कर रही हैं। सरकार को अब चाहिए कि वह अविलंब सरकारी रिकॉर्ड में वतन पर अपनी जान न्योछावर करने वाले भगत सिंह के साथ – साथ सुखदेव और राजगुरु को भी शहीद का दर्जा दे।

लिख रहा हूं मैं अंजाम आज, जिसका कल आगाज आएगा,

मेरे लहू का हर एक कतरा इंकलाब लाएगा,

मैं रहूं या न रहूं मगर वादा है तुमसे ये मेरा,

मेरे बाद वतन पे मिटने वालों का सैलाब आएगा

लेखक :17 बार रक्तदान कर चुके रक्तदानी युद्धवीर सिंह लांबा,वीरों की देवभूमि धारौली, झज्जर-कोसली रोड, हरियाणा,समाज सेवी हैं।