उत्तराखंडी संस्कृति में सरोला के हाथ के बनाए ‘दाल-भात’ की परम्परा

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डाक्टर सुनील दत्त थपलियाल

‘मवार आदम भात खाण छवटा’ बड़ा भात खाण कि आवाज अब कम सुणेंदी पहाड़ गौं म ये शब्द उस समय के थे जब कार्यक्रमों में सारे गांव वालों को खाना खाने के लिए सरोला आवाज देने के लिए  छोटे-छोटे बच्चों को गांव भेजता था।

दाल-भात का उत्तराखंड ग्रामीण संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। कार्य कोई भी ही जैसे नामकरण, जनेव, शादी, मुंडन संस्कार, बरसी सभी में दाल-भात मुख्य भोजन होता है। बात उस समय की है जब न कार्ड था न चिठ्ठी,कार्ड से निमंत्रण देने की परम्परा अभी एक दशक पहले ही उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में शुरु हुई है। इससे पहले लोगों के घरों में जाकर निमंत्रण दिया जाता था। लेकिन पुराने समय में निमंत्रण देने के लिये एक व्यक्ति गांव के सबसे ऊंचे हिस्से पर जाता और वहाँ से आवाज लगाता कि अमुक दिन फलाने के लड़के या लड़की की शादी है या अन्य कोई कार्यक्रम है।

आवाज लगाने वाले व्यक्ति को अगर गांव में सभी लोगों को सपरिवार निमंत्रण देना होता तो वह कहता कि सभी को ‘चूल्हा न्युत’ है वहीं अगर इसे परिवार के एक ही सदस्य के लिये निमंत्रण देना होता तो कहता ‘मौ आदिम’ को भात खाने का निमंत्रण है।

दाल-भात के आयोजन में लकड़ी, भांड़े-बर्तन पानी इत्यादि का प्रबंध पूरा गांव मिलकर करता था। खाना पकाने से लेकर खाना खाने तक के नियम कायदे हुआ करते। इन अलिखित नियमों का कठोरता से पालन किया जाता है। दाल-भात केवल विशेष पण्डित ही बना सकते हैं। कुछ हिस्सों में इसे सरोल पण्डित कहते हैं। चूल्हे के पास जाने का अधिकार केवल सरोल पण्डित को होता है। चूल्हा पत्थर का बनता है। चूल्हा बनाने से पहले पूजा की जाती है। साथ में लगे ये चूल्हे दो या तीन पत्थरों के बने होते है। पत्थरों के बीच की दूरी बर्तन के आकार के अनुसार होती है। भात बनाने के लिये लगने वाली लकडियों का आकार दाल वाले से छोटा होता है।

भात बड़ी-बड़ी कढ़ाई या डेगों में पकाया जाता है। इन डेगों की क्षमता 50 किग्रा से भी ज्यादा होती है। इन्हें ढकने का कोई ढक्कन नहीं होता है। भाप से भात बनाने के लिये इसे पत्तों से ढका जाता है। दाल पकाने के बर्तन या तो तीन धातुओं से बना एक गोल बर्तन होता है या पीतल की मोटी चादर का बना होता है। इनका आकार ढाई सौ लीटर तक होता है। सामान्य रूप से दालों में साबूत दालों का ही प्रयोग किया जाता है।

दाल को पकाने, गलाने या जलने से बचाने के लिये पकाते समय उसमें थोड़ा हल्दी, नमक और सरसों का तेल जरुर डाला जाता। दाल पकने के बाद बड़े बर्तन में घी में पहले लाल मिर्च तली जाती है। उसे निकालकर दाल धनिया और जीरे का छौंका लगाया जाता। पिछले कुछ दशकों से टमाटर प्याज का उपयोग भी दाल छोंकने में देखने को मिलता है। इसके बाद दाल में एक से दो किलो तक का घी डाला जाता है। दाल-भात के सिवा कोई एक सूखी सब्जी, ककड़ी का रायता और खीर बाद के समय में जोड़े गये। खीर या हलवा और पूड़ी पहले से भी गांव के अमीर लोगों के निमंत्रण में बना करती थी।

खाना खाने के लिये सभी को जूते चप्पल उतार कर जमीन में एक पंक्ति बैठना होता है। पहले खाने के लिये पत्तलों का प्रयोग किया जाता था। इन पत्तलों की बाद में खाद बन जाती थी। अब थालियों का प्रयोग किया जाने लगा है। पंक्ति के बीच में भोजन बाटने वाले के अलावा कोई और नहीं चल सकता है। जब तक सभी लोग खाना न खा लें तब तक कोई भी पंक्ति से नहीं उठ सकता। यह पंक्ति पंगत कहलाती है। पंगत में पहले पुरुष और महिला दोनों साथ में बैठते थे। बाद के समय में महिलाओं और पुरुषों के लिये अलग-अलग पंगत बनाई जाने लगी।

खाना बनाने, बांटने से लेकर बर्तन धोने तक का सभी काम पुरुषों द्वारा ही किया जाता था। महिलाओं द्वारा बर्तन धोने की शुरुआत भी सत्तर के दशकों से कुछ गाँवों में शुरु हो चुकी थी। सामूहिक भोज मजबूत ग्रामीण समाज की नींव रखता है। इसकी सबसे बड़ी कमी इसमें किया जाने वाला जातीय भेदभाव है। धीरे-धीरे गांव में भी शहरी संस्कृति आने व पलायन के कारण के पंगत में भोजन का चलन अब उत्तराखंड के ग्रामीण समाज में कम हो गया हो लेकिन जातीय भेदभाव जस का तस है।

शहरी संस्कृति में भी लोग दाल भात पंगत में खाने की परंपरा को अच्छा मान रहे हैं कई संस्थाएं आज भी शहरों में इस प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। जिसमें गढ़ भूमि लोक संस्कृति संरक्षण समिति ऋषिकेश लगातार पहाड़ की संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास कर रही है। इस लेख के माध्यम से यही संदेश देना है कि हम चाहे जहां भी रहे जो भी करें लेकिन अपने संस्कृति व अपनी परंपराओं को कभी ना भूलें।

  • सभी फोटो गूगल से साभार