एक तरफा प्यार

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रमेश हितैषी

कुमाउनी,गढ़वाली,हिन्दी कवि एवं साहित्यकार रमेश हितैषी मूल रूप से गांव झिमार सल्ट अल्मोड़ा,उत्तराखंड के निवासी है। लेखन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे रमेश हितैषी का जन्म 22 जुलाई 1969 को हुआ है। उनके अब तक के रचनाकर्म की बात करें तो ‘पीड़’,गढ़वाली कविता संग्रह, ‘ ढकि द्वाहार’, कुमाउनीं कविता संग्रह,’ दुखों का पहाड़’, हिंदी लेख संग्रह, ‘लौटि आ’, कुमाउनीं गढ़वाली कविता संग्रह, प्रथम प्रयास, ‘ नौ वर्षक ब्या’  कुमाउनीं कहानी संग्रह प्रमुख है।

प्रकाशनाधींन पुस्तकों में,औसान,गढ़वाली उपन्यास, रामू क जीवन गढ़वाली उपन्यास, मेरी दौड़, यात्रा वृतांत कुमाउनीं, दलदल, हिंदी कविता संग्रह, एक तरफा प्यार, हिंदी उपन्यास,  जून गढ़वाली कविता संग्रह, झुट स्वीण, एक पूव गाज्यो, कुमाउनीं नाटक। यहां प्रस्तुत है रमेश हितैषी जी कहानी ‘एक तरफा प्यार’

आज रघु का एक कार्यक्रम था,रघु साहित्य प्रेमी है। संगीत और साहित्य से दिल से जुड़ा हुआ है। उसी के तहत उसे एक कार्यक्रम में एक प्रस्तुति देनी थी जो रघु के लिए कोई नई बात नही थी। वो समय का पावंध था इसलिए वो समय के अनुरूप कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गया। जहां सारे कलाकार विरादरी के लोग बैठे अपने कार्यक्रम सुरू होने की प्रतीक्षा में कर रहे थे। वहीं आस पास इन सब कलाकारों के चित परिचित भी कार्यक्रम देखने के लिए उत्सुक थे। सभी अपने अपने विचारों वाले लोगों से बातों में मसगूल थे। उसी एक पंक्ति में वो भी बैठी थी। लेकिन रघु ने कोई खास ध्यान नही दिया।  देता भी कैसे वहां पर सब नामी और बड़े रसूक वाले लोग बैठे थे। वहां पर रघु अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था। कला और साहित्य तो तो उसके पास बहुत उच्च कोटि  का था लेकिन धनवानी के आगे साहित्य क्या करेगा, हो सकता है वो रघु के मन के भाव हों लेकिन ये सत्य भी है।

अब धीरे-धीर एक घंटा बीत गया और वो समय भी आ गया कि कार्यक्रम आरम्भ होने ही वाला था। आयोजको ने कहा कि अब आप सब मंच के आस पास आ जांय जैसा कि मंच पर होता ही है।  कलाकारों को एक एक कर बैठने के लिए बुलाया जाता है। कुछ स्वागत प्रक्रिया भी होती है। उसके बाद कलाकार अपने अपने स्थान पर बिराज मान होते है। ये स्वागत रघु का भी हुआ। दर्शक दीर्घा से जब रघु  को बुलाया गया तो उसे तालियों की गड़गड़ाहट में किसी का चेहरा तो नही दिखा पर एक टक्क तालियों की आवाज सुनकर मंत्र मुग्ध हो गया। उसे लगा की उसकी भी मंच में वही इज्जत हुई है जितनी अन्य लोगों की हुई, जिनको ओ बहुत बड़े उच्च स्तर का समझ रहा था। रघु ने स्थान ग्रहण कर लिया और दर्शक दीर्घा ओर देखने लगा। दर्शक दीर्घा में बहुत से चित परिचित बैठे थे। वो कुछ लोगों क जानता भी था कुछ को नही भी लेकिन उस वक्त उसे सिर्फ अपनी प्रस्तुति पर खूब तालियाँ बटोरनी थी।                      

सामने दर्शक दीर्घा में रोमा भी बैठी हुई थी। जो हर कलाकार को सुन तो रही थी लेकिन उसे कुछ समझ नही आ रहा था। वो यदा कदा लोगों को देखकर ताली जरूर बजा रही थी। कभी लग रहा था की वो अपने बाजू में बैठे व्यक्ति से उन शब्दो का मतलब जानने के लिए गुहार भी कर रही थी। वो व्यक्ति उस भाषा का जानकार था तो ओ उन प्रस्तुतियों का भली भांति आनंद ले रहा था। उसके भाव से लग रहा था कि रोमा जो उससे पूछ रही है ओ उस बात से खुश नही है। लेकिन रोमा सायद उसके ही साथ आई थी तो उसे समझाना भी उसी की ज़िम्मेदारी थी। इस लिए वो अपने आनंद में दखल देकर उसे समझाने की पूरी कोसिस कर रहा था।

एक के बाद एक प्रस्तुतियां हो रही थी। इस क्रम मे रघु का भी प्रस्तुति देने का समय आ गया। मंच संचालक ने बड़ी सिद्धत से रघु का नाम लिया और कुछ बड़ा चड़ा कर उसको महिमा मंडित कर अपनी प्रस्तुति प्रस्तुत करने को कहा। रघु उसके लिए पहले से ही उत्सुता के साथ तैयार भी था।  रघु ने अपने खुसनुमा अंदाज में अपनी प्रस्तुति दी। दर्शक दीर्घा में से लोगों के खूब वाह वाही की और तलियों की गड़गड़ाहट से स्वागत भी किया। अब रघु अपने स्थान पर बैठ तो गया था लेकिन उसकी नजर रोमा पर थी। वो  रोमा की मजबूरी को समझ रहा था और एक टक्क उसे देख रहा था। रोमा का एक परिचित उस प्रस्तुति कर्ताओं में था। इसलिए वह भाषा को न जानते हुये भी वहां आई थी। 

कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। सब लोग मंच से नीचे उतर कर दर्शको से वार्तालाप करने लग गए। रघु के भी कम मित्र न थे लेकिन रघु का भी लोग परिचय करा रहे थे। रघु की प्रस्तुति इतनी बेहतर थी कि उसे परिचय करने की जरूरत नही थी। उसे तो श्रोता खुद ब खुद कहा रहे थे की क्या गज़ब सुनाया आपने। रघु नम्रता से कहा रहा था कि  न न ये तो आपका स्नेह है अन्यथा में क्या लिख सकता हूँ। लिखने वाले तो सागर में से मोती निकाल देते हैं। ये बात चल ही रही थी की रोमा भी उठकर उस जगह पर आ गई थी जहां पर रघु खड़ा था। एक रोमा का परिचित रघु को भी जनता था। उसने रोमा से कहा ये हैं रघु जी बहुत अच्छा लिखते हैं और गाते भी हैं। रघु ये है रोमा बहुत बेहतर सामाजिक कार्यकर्ता है। समाज में इसका बहुत अच्छा नाम है और समाज के लिए बहुत सुंदर कार्य भी कर रही है। अब रघु की उत्सुकता बड़ गई। उसे ऐसे ही लोगों की तलस थी जो समाज के लिए काम कर रहे हो वो भी महिला और दबे कुचले ओगों के लिए। क्योंकि रघु भी उसी काम में लगा रहता था। रघु भी सबसे पीछे खड़े व्यक्ति को सबसे आगे लाने के लिए कोसिस करता रहता था। बस एक दुसरे का यौन ही नंबर लेकर (जिसमे रोमा भी सामिल थी) रघु अपने घर की ओर चल पड़ा।

एक दिन रघु का अपने मंच पर कार्यक्रम था जिसका सूत्रधार खुद रघु था। रघु ने अपने मोबाइल में कई लोगो को संदेश डाले जिसमे रोमा भी थी। कुछ लोगों ने उस कार्यक्रम मे सिरकत भी की। कुछ लोग नही भी आए लेकिन लिखित में सिर्फ रोमा का संदेश आया कि रघु मैं आपके कार्यक्रम मे आना चाहती थी लेकिन मुझे किसी काम से अपने गांव जाना पड़ गया है। मेरा और आपका मिसन मिलता भी है, लेकिन कोई बात नही अगली बार जो कार्यक्रम हो आप मुझे जरूर बताए में जरूर आउंगी। रघु का कार्यक्रम हो गया। उसने सभी आए हुए मेहमानों का सुक्रिया अदा करने के लिए फिर से संदेश डाले कि आप आए और आपने मेरा उत्साह बढाया बहुत अच्छा लगा। वही संदेश रोमा के पास भी चला गया। रोमा का फिर संदेश आया रघु जी मैं न आ सकी लेकिन आपका भी बहुत आभार।  आपने मुझे याद तो रखा। उसके बाद रोमा रघु की मित्र सूची में जुड़ गई। वक्त वेवक्त रघु के कोई कार्यक्रम होते रोमा  उस पर कुछ न कुछ उत्साहवर्धन टिप्पणी जरूर लिखती। जो रोमा की आदत में सामिल हो गया था और रघु को भी इंतजार रहने लगा था।

समय बीतता गया एक दिन रघु ने रोमा को एक बहुत बड़ी कॉलोनी मे जाते हुये देखा जहां  उच्च स्तर के ओग रहते थे। रघु ने सोचा किसी से मिलने जा रही होगी। लेकिन जिज्ञासु मन कहां  मानता है।  एक दिन उसने पूछ ही लिया कि आप उस कॉलोनी में किस लिए जा रही थी।  रोमा ने सहज जबाब दिया वहीं तो मेरा घर है। रघु को लगा जो लोग इतने बड़े स्तर की कॉलोनी मे रहते है,  उनका और रघु का क्या मेल जो एक दो कमरो के मकान मे रहता है। जिसके घर के आगे एक छोटी सी  कार खड़ी करने की तक जगह नही है। उसको इस बात पर बचपन की एक कविता भी याद आई। mountain and squirrel had a quirrel कि हिमालय और गिलहरी का क्या झगड़ा और क्या प्रेम।  लेकिन जज़बातों के आगे ये बाते आए गई हो गई। रोमा और रघु में बातें यौं ही चलती रहती लेकिन रघु के मन में जो चल रहा था उसे वो कह न सका। लेकिन अंदर ही अंदर घुटने लगा। एक दिन सोसल मीडिया पर रोमा ने एक फोटो डाला था। जिसे देख कर रघु के आंखे फटी की फटी रह गई। वह सोचने लगा की जिसका चित्र उनसे एक क्षण की मुलाक़ात का अपने मन में बनया था वो हूबहू वही चित्र था।  रघु के मन में गलत फहमी हो गई। वो सोचने लगा क्या पता ये तस्वीर उसके लिए ही डाली गई हो।

उस चित्र पर भी बहुत बार बाते हुई,  लेकिन रघु अपनी बात कहने मे सफल नही हो पाया। एक दिन न जाने रघु में वो हिम्मत कहां से आई कि उसने रुँधे गले, लड़खड़ाती जुबान और थरथराते   होंटों से अपनी मन की सारी बात रोमा को कह डाली। रोमा ने उसे यौं ही मान कर हां हूं कर बात को बदल दिया। लेकिन रघु के मन का तूफान उसे चेंन से नही रहने दे रहा था। उसे बस अब एक ही इंतजार था कि किसी तहर रोमा उसके बात का उत्तर सहमति में दे दे। इन बातों को भी कुछ दिन बीत गए लेकिन रोमा ने कोई भी जबाब नही आया। कुछ दिनों बाद एक दिन रोम का संदेश आया की रघु मैं आपसे एक बात कहना चाहती हूं।  कहूं या नही लेकिन बतानी जरूरी है । रघु के कान खड़े हो गए। उसके मन का तूफान और उथल पुथल मचाने लगा। जो चक्रवात की तरह बस घूमे जा रहा था लेकिन ठहरने का नाम नही ले रहा था।

रघु का कान फोन पर था और रोमा की बात सुनने के लिए बेताब था। रोमा ने कहा रघु आप जो कह रहे हो मैं वो बात समझ गई हूं, लेकिन जो तुम मेरे बारे मे सोचते हो मैं वही बात किसी और के बारे मे सोचती हूं। आप मेरी बात का बुरा न मानें। मैं चाहकर भी आपके साथ नही हूं क्योंकि मैंने आपके बारे में ऐसा कभी सोचा ही नही।  बस सुनते ही रघु का सपनों का महल ढहने लगा। सारे मोती बिखर गए। कांच की दीवारों के टुकड़े टुकड़े हो गए। उन सब टूटे काँच के टुकड़ों में रघु को अपनी बदनसीबी के अलाव कुछ नही दिख रहा था। लेकिन ओ इस बात से खुश था कि इसमे और कोई पहलू नही था जिसे कि रघु को अपने को छोटा महसूस करना पड़ता। रघु साहित्य प्रेमी तो था ही। उसने कुछ ग्रंथों  का भी अध्ययन किया हुआ था। उसे एक सीख याद आ गई कि प्रेम तो निस्वार्थ होता है, जब जो भाव निस्वार्थ है तो मंगना कैसा। इसमे तो समर्पण है जिसमे सिर्फ देना ही होता है। सामने वाले को पूछना होता है कि बोल मेरे मित्र मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूं। फिर वो जो मांगे वो देना ही तो प्रेम है।

वहीं तो रोमा को भी देना है। फिर दुख किस बात का। वैसे  रघु ये जानता भी है कि सच्चे प्रेम में नायक और नायिका का मिलन होता ही नही है। तभी तो वो प्रेम कहानियां अमर होती है। रोमा और रघु की प्रेम कहानी भी गंगा की तरह पवित्र और निर्मल है। बस अब रघु एक ही बात की कामना करता है कि कास रोमा जिसे चाहती है वो उसे मिल जाय। यदि उनको मिलाने में रघु को भी कुछ करना पड़े तो रघु हमेशा रोमा के साथ रहेगा। नही तो रघु के मित्र को बहुत दुख होगा, जिसका एहसास रघु को भली भांति है। उस दुख की आहाट भी वो रोमा के इर्द गिर्द नही आने देना चाहता। दूर ही सही उसे सदैव खुश देखना चाहता है। सायद यही प्रेम है, समर्पण है, त्याग है, और सायद एक तरफा प्यार भी है।